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________________ नारकी जीवों का गमनागमन नरक गति में रहनेवाले नारकी जीवों के भी अपने विशिष्ट नियम हैं । जीवों की परिणति-वृत्ति-स्वभाव आदि के आधार पर वैसा होता है । अतः यह शाश्वत नियम है कि नारकी जीव भी ४ में से सिर्फ २ गति में ही जाता-आता है । अर्थात् नरक में आना भी सिर्फ २ गति में से ही होता है और नारकियों का जाना भी सिर्फ २ गतियों में ही होता है। और वे हैं-मनुष्य गति तथा दूसरी तिर्यंच गति । जबकि देवता देवगति से मरकर कोई नरक में जा ही नहीं सकता है और नरक का नारकी जीव मृत्यु पाकर पुनः नारकी नहीं बनता है । नरक गति में एक साथ २-४ भव होते ही नहीं है। सिर्फ एक ही जन्म होता है । बस, एक जन्म करके जीव को नरक गति में से बाहर निकलना ही पड़ता है और मनुष्य या तिर्यंच की गति में जा सकता है । हाँ, वहाँ भी सिर्फ १ भव करके वापिस नरक गति में आ सकता है । भले ही बार बार नरकगलि में आए और जन्म धारण करे लेकिन एक साथ . ३-४ जन्म नरक में नहीं कर सकता है। नरकगति के नारकी जीवों की लेश्याएँ परिणाम धारा बहुत ही हल्की रहती है। कषायों की तीव्रता भी काफी ज्यादा रहती है । वहाँ दुःख अत्यन्त ज्यादा रहता है । इसके कारण उनकी वैसी परिणति रहती है । आखिर क्षेत्र की वैसी स्थिति है। ज्यादातर ८०% तिर्यंच गति के जीव नरक में आते हैं। इसी तरह ज्यादातर मनुष्यगति के जीव भी नरक गति में आते हैं । उदाहरणार्थ- पंचेन्द्रिय जीवों का वध-हिंसा करना, उन्हें मारकर खाना आदि पंचेन्द्रिय घातक तथा गर्भपात करना-कराना आदि पापों में भी पंचेन्द्रिय मनुष्यों का वध है । पाप है, महापाप है, महा भयंकर पाप है । ऐसे पापों की सजा भुगतने के लिए नरकगति के अतिरिक्त अन्य किसी भी गति में जा ही नहीं सकता है। क्योंकि अन्य किसी गति में इतने ज्यादा भारी पाप भुगतने की कोई सुविधा नहीं है । भारी पाप कर्मों की सजा भी बडी भयंकर होती है। और वह भी बडे लम्बे काल तक भुगतनी पडती है । इसलिए नरक गति ही उन भारी पापों की सजा के अनुरूप है । क्यों कि नरक गति में १ से लेकर ३३ सागरोपम तक की सुदीर्घ आयुष्य स्थिति है । और प्रत्येक क्षण क्षण में भयंकर दुःख उसे भुगतना होता है । ऐसी नरक गति में नारकियों की संख्या असंख्य की है। ४ गति में ८४ लक्ष योनि में जन्म देव, मनुष्य, नरक और तिर्यंच की इन चारों गति में कुल ८४ लाख योनियों की संख्या हैं । उसका वर्गीकरण इस प्रकार है २५० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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