SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और जन्म-मरण का चक्र चलता ही रहा । दूसरी चित्राकृति में सीधा वर्तुल है । चक्राकार गोल है । इसमें दोनों किनारे सीधे मिल जाते हैं। इस तरह यदि कोई जीव अपने संसार चक्र में परिभ्रमण करते हुए १-२ जन्म करके संसार चक्र का अन्त ले आए। तथा भव संसार से छुटकारा पाकर मोक्ष में चला जाय तब तो सर्वश्रेष्ठ प्रक्रिया है । परन्तु ऐसा भाग्यशाली जीव अनन्त की संख्या में एक दो भी मिलना मुश्किल है। अतः समस्त संसार चक्र चक्राकार या वर्तुलाकार न चलते हुए... Spiral ही चलता है । यह जीवों के घूमने – भटकने की स्थिति है । द्योतक है । आपको याद होगा कि... बच्चे के रूप में हम जब छोटे से थे.... तब... क्या करते थे? जिस दिन पाटी-पेन, या कागद-पेन्सिल हाथ में लेकर पहले-पहले क्या किया था? क्या लिखा था? वापिस स्मृति को थोडी और ताजी करिये । आपको याद आने पर ख्याल आएगा कि... Spiral के जैसी गोल-गोल आकृति ही की होगी। सीधा सरल.... वर्तुल बना लेना तो बहुत ही मुश्किल था। सच पूछा जाय तो यह कुछ भी नहीं सिर्फ जीव की अनेक जन्मों से चली आती हुई संसार यात्रा का प्रदर्शन है । जीव ने अपनी स्वयं की भव भ्रमण की स्थिति दर्शायी है। इसमें वास्तविकता का ख्याल कराया है। इस तरह जीव संसार में सीधा विकास नहीं साध पाता है । और चढाव-उतार उत्थान-पतन करता हुआ चलता ही रहता है। जैसे कोई एक व्यक्ति यहाँ से उत्तर दिशा में दिल्ली की तरफ जाता हो । और वह १ कदम आगे रखे.. और २-३ कदम पीछे रखे...फिर १ कदम आगे रखे, फिर २-३ कदम पीछे रखे... फिर १ कदम आगे रखे, फिर २-४ कदम पीछे हटे, फिर कभी १ कदम आगे रखे और फिर एक कदम आगे रखे और फिर एक कदम आगे रखे और ३-४ कदम पीछे रखे... इस तरह यदि वह चलता जाय तो क्या वह दिल्ली पहुँच सकेगा? जी नहीं । कभी भी संभव नहीं हैं। क्योंकि अन्त में सब कदम जोडने पर .... ज्यादा संख्या पीछे चलने की होगी। इसकी तुलना में आगे चलने की कदमों की संख्या बहुत कम रहेगी । परिणाम स्वरूप अन्त में वह जीव अपना पतन करता हुआ नीचे गिरता रहेगा। इसे विकास नहीं विनाश कहेंगे। और आपको आश्चर्य तो इस बात का होगा कि अनन्त काल से यही क्रम इसी तरह से चल रहा है। हमारा सभी जीवों का इस तरह ऐसा क्रम चल रहा है । सोचिए, कहाँ विकास हुआ? हम आगे कहाँ बढे हैं ? और पीछे उतरे हैं। यह तो विनाश की दिशा है। २४६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy