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________________ में मृत्यु पाकर वहाँ से गिरा और गिरकर वापिस तिर्यंच गति में आया और पतन भी इतना ज्यादा हुआ कि कई बार देवता देवगति से गिरकर एकेन्द्रिय की पृथ्वीकाय की जाती में जाता है। और वहाँ हीरा-मोती-रत्नादि के रूप में जन्म लेता है ।पार्थिव पदार्थ बनता है। ओहो ! कितने ऊपर से कितना नीचे पतन । अब यदि इस तरह जीव अपनी भव परंपरा करता रहेगा तो कब उसका उत्थान-विकास होगा? कैसे आगे बढेगा? कितने काल में कितने वर्षों में कितने भवों में आगे बढेगा? . ८४ लाख जीव योनियों में जन्म धारण करते-करते जीव मनुष्य गति में भी आ जाता है। मनुष्य का जन्म धारण करके भी जीव सेकडों पापों को करने में लग जाता है। परिणाम स्वरूप कई बार नरक गति में जाता है तो कई बार तिर्यंच गति में जाकर .... पशु-पक्षी भी बनता है । यह भी वहाँ से पतन ही है । यह विकास नहीं विनाश है । क्योंकि मनुष्य गति का जन्म धर्माराधना-पुण्योपार्जन करने के लिए था। कर्मक्षय करने के लिए था। किये हुए पापकर्मों को धोने का था... उसके बदले जीव ने पाप की प्रवृत्ति चालू रखी। परिणाम स्वरूप जीव का पतन हुआ और मनुष्य जन्म से गिरकर पुनः तिर्यंच पशु-पक्षी की गति में भी गया और कई बार नरक गति में भी गया। वहाँ से वापिस बाहर निकला, फिर ८४ के चक्र में परिभ्रमण करता ही रहा। आप देखिये, इन दोनों चित्रों में— एक नंबर के चित्र में Spiral है । इसमें दोनों किनारे कहीं मिलते ही नहीं है । गोल-गोल जीव घूमता ही जाता है । इस वर्तुलाकृति की तरह घूमते-घूमते जीव ने अनन्तानन्त जन्म बिता भी दिये तो भी कहीं अन्त नहीं आया। डार्विन के विकासवाद की समीक्षा २४५
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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