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जीव । इसमें भवों में विकास जैसा लगा कि आगे बढ़ रहा है जीव, लेकिन फिर नीचे उतरा हुआ पीछे कदम रखता हुआ भी लगा। अशुभ पापकर्म नीचे गिराते हैं । शुभ पुण्य कर्म ऊपर चढाते हैं । आगे बढाते हैं। दोनों ही प्रकार के कर्म हैं । इनके कारण चढाव-उतार होता ही रहता है । कभी तो जीव आगे बढा और सीधा चउरिन्द्रिय में पहुँचा और वापिस जीव गिरा कि दोइन्द्रिय में आ गया। फिर कभी ऊपर चढा और तेइन्द्रिय बना, फिर गिरने
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पर पृथ्वी-पानी में आया। फिर आगे बढा । कभी तेइन्द्रिय में चिंटी मकोडा बना और कुछ काल-कुछ भव बिताए और पापकर्मवश पुनः जीव दोइन्द्रिय में आ गया। आखिर स्वकृत कर्मानुसार जीव वापिस आगे बढा और पंचेंद्रिय में भी पहुँचा । वहाँ तिर्यंच गति का जलचर बना, कुछ भव वहाँ पंचेन्द्रिय में किये । ऐसा लगा कि काफी ऊपर चढ़ गया है । कुछ विकास हुआ है । लेकिन अपने पापों को करके जीव पुनः नरक गति में गया। नारकी बना । असंख्य वर्षों तक अपने पापों की सजा भुगतता रहा। फिर वापिस तिर्यंच की गति में जाकर पशु-पक्षी बना । पेट के खातिर जीते हुए अपने खाने के लिए भी भारी पाप कर्म करने पडे । जैसे सिंह को भूख लगने पर, पेट भरने हेतु भी किसी प्राणी को मारकर ही खाना पडेगा क्योंकि वह मांसाहारी है । झाडीयों के बीच रहने के बावजूद भी वह घास का एक तिनका भी नहीं खाता है । अतः मांस तो किसी को मारकर ही खाएगा। फिर हिंसा के पापकर्म के कारण जीव नरक में जाता है। फिर वहाँ से तिर्यंच की पशु-पक्षी की गति में आता है । पाप-कर्म की प्रक्रिया चालू ही रहती है । क्योंकि ऐसी पशु-पक्षी की तिर्यंच गति में धर्माराधना की समझ कहाँ है ? ज्ञान कहाँ है ? फिर पतन नहीं होगा तो क्या होगा?
___तिर्यंच गति के पशु-पक्षी के जन्म में कुछ परोपकार-पुण्योपार्जन करके ऊँची गति में देवगति में पहुँचा, देवता भी बना । बडा लम्बा चौडा आयुष्य प्राप्त किया । बहुत ही अच्छे सुख-मौज में भोगादि भुगतते हुए उसने वहाँ भी जन्म बिताया । वहाँ तीव्र मोहदशा
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आध्यात्मिक विकास यात्रा