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एकेन्द्रियों का भवभ्रमण
पुढवीकाय मइ गओ, उक्कोसं जीव उ संवसे। . कालं संखाईअं, समयं गोयम! मा पमायए।। १०/५॥ आउकाय मइ गओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाईअं, समयं गोयम! मा पमायए । १०/६॥ तेउक्काय मइ गओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाईअं, समं गोयम! मा पमायए॥ १०/७॥ वाउक्काय मइ गओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे।
कालं संखाईअं, समयं गोयम! मा पमायए ।। १०/८।। उत्तराध्ययन आगमशास्त्र के १० वे अध्ययन में प्रभु फरमा रहे हैं कि- एकेन्द्रिय के जन्म में गया हुआ जीव जब पृथ्वीकाय में पत्थर-मिट्टि-धातु-रत्नादि पर्याय धारण करता हुआ भव भ्रमण करता है तब उसमें संखाईअं = संख्यातीत = अर्थात् संख्या के भी अतीत-उस पार मतलब है अनन्त काल से । इतना अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी का काल जीव पृथ्वीकाय में, अप्काय-पानी में तेउकाय अर्थात् अग्नि के जन्मों में तथा वाउकाय-हवा के जीव रूप में जन्म बिताते हुए भव भ्रमण करने में काल बिता देता है। इस तरह अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी का काल जीव एकेन्द्रिय के भव करने में बिता देता है । और आगे विकास नहीं हो पाता है । अकाम निर्जरा करते करते जीव बडी मुश्किल से आगे बढ पाता है । ऐसी स्थिति में यदि अनन्त काल बिताना पडे तो आगे का विकास कैसे संभव होगा?
एक तरफ तो जीव ने निगोद की अवस्था में साधारण वनस्पतिकाय की कक्षा में भी अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी का काल बिता दिया और बड़ी मुश्किल से संसार के व्यवहार में आया। आगे के पृथ्वी-पानी के एक इन्द्रियवाले भवों में आया। इसमें पृथ्वी-पानी-अग्नि-वायु, में भी अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी का काल बिता दिया। इसके बाद २, ३, और ४ इन्द्रियोंवाले विकलेन्द्रिय के भवों में जीव ने संख्यात हजारों वर्षों का काल बिता दिया । कैसे विकास होगा? आगे उत्थान–प्रगति कैसे होगी? चढाव-उतार का विचित्र विकास
जीव जब तक संसार में रहेगा तब तक कर्मों को करते हुए ही रहेगा। कर्मों के साथ ही रहेगा। कर्मों को करते हुए शुभाशुभ विपाकों को भुगतते हुए भव-भ्रमण करता है
डार्विन के विकासवाद की समीक्षा
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