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________________ कई किसम के भौरे भी ऐसा ही करते हैं । इस तरह चउरिन्द्रिय निकाय में भी जीवों को हजारों वर्षों तक जन्म-मरण करने पड़ते हैं । तथा चउरिन्द्रिय में से वापिस नीचे पतन भी होता है । तेइन्द्रिय, दोइन्द्रिय और एकेन्द्रिय में भी चले जाते हैं । वापिस वहाँ की भव परंपरा करनी पडे। वनस्पति में भी मांसाहार- वनस्पति के वृक्ष तो एकेन्द्रिय की कक्षा में गिने जाते हैं। सिर्फ स्पर्श मात्र का थोडा सा ज्ञान है । ऐसे एकेन्द्रिय जाती में प्रत्येक वनस्पतिकाय में कई वृक्ष इस प्रकार के हैं जो अपने फल-फूल का मुँह खुल्ला रखते हैं । जब खिलते हैं और उसमें बाहर से कोई भौंरा-मक्खी आदि आकर बैठ जाए तो उनके पुष्प सिकुडकर बन्द हो जाते हैं । और फिर संकुचनादि की क्रिया करते हैं । इस तरह अन्दर की खुरदरी सतह पर घिस कर वे भौरे आदि मर जाते हैं । उनका खून आदि जो होता है उसे वे पौधे चूस लेते हैं ग्रहण करते हैं । कुछ वृक्षों के कांटे होते हैं । कुछ वृक्षों के पत्ते ... कांटेदार नकीले होते हैं । जो सूई की तरह चुभते हैं। और वे काटे शरीर में-चमडी पर फँस जाते हैं । जिससे वे खून चूसने का काम करते हैं । तथा कई पौधों के बीजों को सादी जमीन में बोया गया तथा कुछ को मृत कलेवर वाली भूमि पर बोया गया अर्थात् जिस भूमि में किसी भी पशु-पक्षी आदि के मृत शरीर दबे हुए हो । ऐसी भूमि पर बीज बोया गया तो वे बीज उन मृत कलेवरों से आहार के परमाणुओं को खींचकर अपने शरीर की वृद्धि काफी जल्दी कर लेते हैं। इस तरह वनस्पति के अन्दर भी शाकाहारी-मांसाहारी के भेद पडते हैं। परिणाम स्वरूप इस छोटी सी वनस्पति की काया में जाकर भी एक मात्र आहार के कारण कितने कर्म उपार्जन करता है और किस तरह अपना पतन करता है? वनस्पति में स्वकायस्थिति- एकेन्द्रिय में भी जो मात्र वनस्पतिकाय की स्थिति में ही रहते हैं वे जीव भी वहाँ पर कितना काल बिताते हैं ? जन्म-मरण तो निरंतर चलते ही रहेंगे? इस तरह कितना काल बिताता है जीव? इस पर श्री वीर प्रभु फरमाते हैं कि वणस्सइकाय मइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे।। कालमणंतं दुरंतं, समयं गोयम! मा पमायए ।।१०/९।। साधारण वनस्पति भी वनस्पतिकाय का ही भेद है । इसमें जीव अनन्त काल बिता देता है। अनन्त काल शब्द छोटा पडता है। इससे बडा शब्द है- अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी का काल वहाँ जीव बिताता है। शरीर छोटा और जीवन भी छोटासा, इस तरह भी जीव अनन्त जन्म वहाँ बिताता हुआ कितना लम्बा-चौडा भव भ्रमण करता है ? अतः श्लोक में दुरंत शब्द का प्रयोग किया है । अत्यन्त कठिन है। २४२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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