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________________ परिभ्रमण करते करते जीव बहुत लम्बा-दीर्घ काल बिताता है। और अनन्त भवों को करता-करता भव-भ्रमण करता है । शाकाहारी मांसाहारी दोनों प्रकार के जीव जब से दूसरी इन्द्रिय-जीभ-रसनेन्द्रिय प्राप्त हुई है तब से जीव... मुँह से आहार करता ही आया है। खाते ही रहना एक प्रकार की वृत्ति बन गई है। लेकिन क्या खाना-क्या नहीं खाना इसका विवेक कहाँ है ? कर्मबंधकारक वैसी वृत्ति-प्रवृत्ति भी तो रहती ही है। उसीके आधार पर भावि की भव परंपरा बढती ही रहती है। तेइन्द्रिय में देखिए- रेशम के कीडे कैसे शाकाहारी हैं? शहतूत की पत्तियाँ खाते हैं, अनाज के कीडे अनाज खाते हैं। फल-तरकारियों में मटर-भिंडी आदि में रहनेवाले उसी का आहार करते हैं। अतः शाकाहारी हैं । काजू-बादाम-पिस्ते में भी कीडे पडते हैं और उनको भी अंदर से खा जाते हैं । यह तो रोज देखते ही हैं । ये शुद्ध शाकाहारी हैं। और खटमल मांसाहारी हैं । जो चमडी में अपना काँटा फँसाकर खुन चाटेंगे । चिंटियों में भी लाल चिंटी देखिए-चमडी पर पक्कड मजबूत बनाकर चिपक जाएगी । और अपनी नोंक चमडी के अन्दर डालकर खून चाटती रहती है । वही हालत जूं की भी है । देखिए.... इतने छोटे से तेइन्द्रिय के शरीर के रहकर भी ये कितनी पीडा दूसरों को पहुँचाकर रक्त पीने । का-मांसाहार करने का पाप करते हैं। फिर कर्मबंध से हजारों वर्षों तक स्वकाय स्थिति में भव-भ्रमण नहीं करना पडेगा तो क्या होगा? अरे ! स्वकायस्थिति में ही करें तो तो और भी अच्छा ही है लेकिन... पापकर्मों के आधार पर नीचे गिरकर पुनः २ इन्द्रियवाले तथा एकेन्द्रियवाले भव भी धारण करने पडते हैं जहाँ से असंख्य वर्षों का अनन्त वर्षों का काल बिताकर जीव आया था वहीं वापिस जाना पडे.... फिर वे सब धारण करना पडे तो यह कितना भारी पतन होगा? इसी तरह चउरिन्द्रिय- में भी... मक्खी मच्छर भौंरा आदि जीव भी दोनों प्रकार के हैं। मक्खी की एक छोटी ग्रामीण जाति शाकाहारी है । जो आहार पर बैठकर अपना खाद्य ग्रहण करती है । मधुमक्खियाँ बगीचों में से पुष्पों पर बैठ कर परागकण ही ग्रहण करती हैं । परन्तु जंगली बडी मक्खियाँ मांसाहारी भी होती हैं। किसी की चमडी पर बैठकर शरीर से रक्त खींचती हैं । और मच्छरों को तो आप पहचानते ही हैं। ये तो पक्के एक नंबर के मांसाहारी ही हैं । ये आहार पर नहीं बैठेंगे। ये शरीर पर बैठकर-चमडी के अन्दर अपनी नोंक घुसा देंगे और खून चूसते रहेंगे। इससे मनुष्यों को वेदना होती है। डार्विन के विकासवाद की समीक्षा २४१
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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