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बन जाय जो चमडी पर चिपक कर खून खींच लेती है । फिर मरकर शंख के रूप में जन्म
, फिर मरकर नासूर का कीडा बन जाय, फिर मृत्यु पाकर अलसिया बन जाय । इस तरह जन्म बदलता जरूर है परन्तु इन्द्रिय की प्राप्ति की कक्षा नहीं बदलती है । जब तक आगे की इन्द्रिय की कक्षा न मिले तब तक आगे विकास भी नहीं होता है ।
तीन इन्द्रियवाले भव
अब संख्यात हजार वर्ष काल के बाद जीव तेइन्द्रिय की कक्षा में आता है । एक कदम आगे बढता है । १ ली स्पर्शेन्द्रिय (चमडी) + री रसनेन्द्रिय (जीभ) + ३ री घ्राणेन्द्रिय (नासिका) प्राप्त होती है । दो इन्द्रियाँ तो पहले की थी, और एक और पाई । और जीव ने एक कदम आगे प्रगति की । इतना विकास हुआ... स्पर्श और रस दो का ज्ञान था ..... . इन दो को ग्रहण करता था..... अब तीसरी घ्राणोन्द्रिय से - सुगंध - दुर्गन्ध को भी ग्रहण करने लगा । विषय बढा । इसी के साथ जीव की गति प्रवृत्ति - भी बढी । अब वह चिंटी-मकोडा - खटमल - सिर की जू, लीक, चमडी पर की जू, सावा, कीडा,
रेशम का कीडा, लट - ( इयल) अनाज का कीडा, फल-फूल तरकारियों का कीडा, दीमक - ऊधई आदि कई प्रकार के जन्म धारण करने लगा । शरीर भी थोडा बढा, गति भी काफी बढी । प्रवृत्ति भी काफी बढी । अब आहारादि के लिए इधर-उधर भागना आदि शुरु हुआ । चिंटी-शक्कर की कण लाती है। बिल में रखती है । मकोडे दौडते हैं इत्यादि ।
इन ३ इन्द्रिय वाले ही शरीर में रहते रहते जीव कितना काल बिताता जाएगा । ३ इन्द्रियवालों की स्वकाय स्थिति का काल बताते हुए प्रभु फरमाते हैं
तेइन्दियकाय मइ गओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
कालं संखिज्जसन्नियं, समयं गोयम ! मा पमायए ।
३ इन्द्रियवाले शरीर को धारण करता-करता जीव उत्कृष्ट से संख्यात हजार वर्षों का काल भी बिता देता है । जबकि आप देख ही रहे हैं कि- चिंटी, मकोडे, जूं, लीक, रेशम
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आध्यात्मिक विकास यात्रा