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संसार चक्र में अनन्त भवभ्रमण
__ भव अर्थात् संसार ऐसे संसार-चक्र में जीव कर्मवश सतत परिभ्रमण करते ही रहते हैं। इसे भवभ्रमण कहते हैं । भ्रमण अर्थात् घूमना । कहाँ होता है ? जन्मों में । एक के बाद दूसरा जन्म । इस तरह जन्म-मरण धारण करते ही रहने की प्रक्रिया को भव-भ्रमण कहते हैं । जब जीवात्मा ही अनन्त काल से नित्य-शाश्वत है और भावि में भी अनन्त काल तक जिसका अस्तित्व सदा ही बना रहेगा। फिर अन्त का सवाल ही कहाँ खडा होता है? अनादि से लेकर अनन्त तक की लम्बी परंपरा चलती ही रहती है।
यह परंपरा निगोद से प्रारंभ होती है और सिद्ध न बने वहाँ तक चलती ही रहती है । बस, सिद्ध मुक्त बनने के बाद इस भव-भ्रमण का अन्त आ जाता है । निगोद के पहले कुछ नहीं और सिद्ध-मुक्त के बाद भी कुछ नहीं । ये दोनों एक रस्सी के दो किनारों की तरह हैं । पहला किनारा निगोद का और अन्तिम किनारा मुक्ती का । बस, इसके बीच में अनन्त जन्मों का परिभ्रमण चलता ही रहता है। जब तक जीव स्वयं कर्म बांधना-कर्म उपार्जन करना बंद नहीं करेगा तब तक भव-भ्रमण चलता ही रहेगा। कारण हो तो कार्य होता है। जैसे सूर्य हो तो प्रकाश-धूप फैलती ही रहती है। इस तरह कर्म बांधे हुए हो तो आगे जन्म-मरण भवभ्रमण का चक्र चलता ही रहता है। बस, कर्मक्षय शुरू कर दें
और “सव्वपावप्पणासणो" सर्व पापकर्मों का संपूर्ण सर्वथा क्षय हो जाय तब मुक्ती हो जाती है । फिर वापिस संसार चक्र में परिभ्रमण करना नहीं पड़ता है।
एक आत्मा के मोक्ष में जाने से एक जीव का निगोद के गोले में से बाहर निकलना होता है । साधारण वनस्पतिकाय की सूक्ष्मतम अवस्था में से दृश्य-दर्शनीय बनता है। सूक्ष्म में से स्थूल बनता है । आलु-प्याज-लहसून-आदु-अदरक-गाजर-मूलाशक्करकंद-अंकूरा आदि बादर-स्थूल वनस्पतिकाय में जीव आता है । बडे आकार में बनता है । हाँ, सूक्ष्म और स्थूल दोनों ही अवस्था में साधारण वनस्पतिकाय में जीवों की संख्या तो एक शरीर में अनन्त की थी। एक ही शरीर में अनन्त जीवों को एक साथ रहना है। बडी दुःखदायी स्थिति है।
इस निगोद जैसी दुःखद अवस्था में भी जीव ने अनन्त काल बिताया है। अब वह साधारण अवस्था में से बाहर निकलकर... थोडा ऊपर उठकर...प्रत्येक वनस्पतिकाय में आता है । साधारण वनस्पतिकाय की स्थिति में जो एक ही शरीर में अनन्त जीव को रहना पड़ता था उसके बदले अब प्रत्येक वनस्पतिकाय में एक शरीर में एक ही जीव अलग
डार्विन के विकासवाद की समीक्षा
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