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________________ है । यदि माँ ही अपने संतान के शरीर की रचना गर्भ में कर सकती होती तो मनचाहा... सुन्दर से सुन्दर बच्चा बना सकती थी। सर्वांग संपूर्ण-सर्वेन्द्रिय सम्पन्न ... बल-बुद्धी युक्त बालक बना सकती थी । परन्तु अफसोस, माँ बिचारी न तो कुछ जानती है और न ही कुछ कर सकती है और न ही संतान बना सकती है। यह तो जीवात्मा है जो स्वकृत कर्मानुसार माँ के गर्भ में प्राणवायु और आहार के पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करते हुए शरीर की रचना करता है । जैसे कर्म होंगे वैसा शरीर निर्माण होगा। हो सकता है कि जन्मजात अंधा हो-गूंगा हो, बहरा हो । लूला-लंगडा हो, पंगु हो । मूर्ख हो या बुद्धिमान हो.... कुछ भी कहा नहीं जा सकता । जैसे उसके कर्म वैसे ही उसके शरीर की रचना होगी। जब केन्द्र में चेतनात्मा है और जो नित्य शाश्वत है तथा संसारी अवस्था में कर्मग्रस्त है तब तो उसे फिर-फिर जन्म लेना ही पडेगा। बस, इसे ही पुनर्जन्म कहते हैं । चेतनात्मा ही न होती तो जन्म ही कौन लेता? और चेतनात्मा एक ऐसा अनुगत नित्य द्रव्य है जो जन्म धारण करता है। आयुष्य कर्म के आधार पर निर्धारित वर्षों का जीवन जीता है। और काल समाप्त हो जाने पर ... मृत्यु पाता है । मुत्यु कुछ भी नहीं सिर्फ जीवात्मा के शरीर छोडने की क्रिया मात्र है। दोनों का वियोग मात्र है लेकिन यह वियोग जो स्थूल शरीर के साथ है वह कितनी क्षण तक है...सिर्फ ३-४ समय तक । बस, इतने में एक जीवात्मा इस शरीर से निकलकर-जाकर दूसरे जन्मस्थान रूप योनि में प्रवेश कर ही लेती है। और २ घडी के अन्तर्मुहूर्त काल में शरीर धारण कर लेती है । बस, बाद में तो शरीर का सिर्फ विकास ही करना रहता है । उसके लिए मनुष्य गर्भ हो तो ९ ॥ महीने का समय है । सभी योनियों में भिन्न-भिन्न काल व्यवस्था है उस हिसाब से वहाँ उतना रहकर बाद में जन्म लेकर धरती पर अवतरना होता है । इस तरह एक के बाद दूसरा... दूसरे के बाद तीसरा..... इस क्रम से बार-बार जन्म चलते ही जाते हैं । इसे ही पुनर्जन्म कहते हैं। ० १०२०३०४०५०६०७०८०० १०२०३०४०५०६०७०८० ०१०२०३०४०५०६०७०८० । । + H+ +H जन्म १ मृत्यु जन्म २ . मृत्यु जन्म ३ मृत्यु इस तरह जन्म-मरण का चक्र चलता ही रहता है । यह अनन्त की संख्या में है। बस जहाँ जीवों के सतत जन्म-मरण होते ही रहे इसे ही संसार चक्र कहते हैं। २३४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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