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________________ यह संसार और कुछ भी नहीं सिर्फ जीवों के जन्म-मरण का स्थान-क्षेत्र है । और जीव भी स्वकृत कर्मानुसार जन्म-मृत्यु धारण करता ही रहता है । जैसे एक ही सुवर्ण के सेकडों बार अलग-अलग आकार-प्रकार के गहने-आभूषण बनते हैं, उनमें सुवर्ण द्रव्य अनुगत रहता है । ठीक वैसे ही एक चेतनात्मा द्रव्य स्वकृत कर्मानुसार अनन्त जन्म-मरण धारण करता ही रहता है । जन्म लेने पर शरीर बनता है और मृत्यु होने पर शरीर विलीन हो जाता है। शरीर के आकार-प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के बनते हैं। अनन्त बार शरीर बना है और विलीन हो चुका है, फिर भी चेतनात्मा द्रव्य शाश्वत होने से अनुगत मूल द्रव्य के रूप में एक जैसा ही रहा है । नित्य रहा है । यह स्थायी-नित्य-शाश्वत द्रव्य है इसलिए अनन्त काल तक एक जैसा रह पाया है । जबकि शरीर जड-पुद्गल का बना हुआ पौद्गलिक है। यह विनाशी-नाशवंत है। वर्तमान सजीवावस्था जड-चेतन के संयोग की अवस्था मात्र है । एक दिन इन दोनों द्रव्यों का वियोग भी होगा उस दिन मृत्यु कहेंगे । इस संसार में लोगों को संयोग सुखकारक लगता है और वियोग दुःखकारक लगता है । परन्तु यह सब मोहवश लगता है । यदि मोह से ऊपर उठकर... ज्ञान की तटस्थ दृष्टि से देखा जाय तो जैसे एक व्यक्ती दिन में दस बार वेष परिवर्तन करता है ठीक वैसे ही आत्मा देह परिवर्तन करती है । यह देह आत्मा के लिए वेष-वस्त्र की तरह है । पुराना देह छोडकर नया वेश धारण करना जीव का कर्मवश स्वभाव है। उस चेतनात्मा को कुछ भी नहीं लगता है। परन्तु सगे-संबंधियों को मोहवश सुख-दुःख लगता है। क्योंकि उनके साथ संयोग-वियोग होता है। __पुनर्जन्म Rebinh - पुनः (Re) अर्थात् फिर से... बार-बार... पुनः पुनः इस तरह एक के बाद एक... बार-बार जन्म-धारण करते जाना इसको पुनर्जन्म कहा है । जन्म का अर्थ है- माँ के गर्भ में एक जीवात्मा का आकर स्वकर्मानुसार रहने के लिए (घर) शरीर बनाना और काल की परिपक्वता के ९ । मास बाद धरती पर अवतरना । पुनर्जन्म का सिद्धान्त आत्मवादियों का है। जो आत्मा को मानते हैं उनके लिए पुनर्जन्म मानना अनिवार्य सिद्धान्त है । और जो आत्मा को न माननेवाले अनात्मवादी दर्शन हैं, नास्तिक दर्शन या धर्म हैं, वे जो आत्मा को नहीं मानते हैं, उनके दर्शन में पुनर्जन्म मानने की व्यवस्था होनी ही नहीं चाहिए। क्योंकि जन्म का आधार केन्द्र आत्मा है । आत्मा ही जन्म लेती है। यदि आत्मा न हो तो जन्म'ले कौन? शरीर रचना का कार्य करे कौन? क्या माता अपने संतान के शरीर की रचना गर्भ में करती है? जी नहीं । माँ तो सर्वथा अन्जान रहती है। गर्भ में ९ ॥ महीने तक क्या हो रहा है इस विषय में माँ बिचारी सर्वथा अज्ञात रहती डार्विन के विकासवाद की समीक्षा २३३
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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