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ॐ
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अतः ये जड-पुद्गल साधन हैं । जड अपने आप स्वयं क्रिया नहीं करता है । निष्क्रिय है। अतः यहाँ पर "से" शब्द से ज्ञान की क्रिया का कर्ता चेतनात्मा सिद्ध होता है। आँख-कानादि इन्द्रियाँ मात्र करण अर्थ में सिद्ध होती हैं।
__ ऐसी इन्द्रियाँ अपने-अपने
किये हुए कर्मानुसार जीवों को कम ५ -----
ज्यादा प्राप्त होती हैं। पाँच इन्द्रियाँ संपूर्ण हैं। इसमें से कम होने पर विकलेन्द्रियता आती है । इन्द्रियों की परिपूर्णता गुणात्मक एवं संख्यात्मक दोनों अवस्था में प्राप्त होनी-यह भी प्रबल पुण्योदय की निशानी है।
अपने-अपने विषयों का ज्ञान आत्मा तक पहुँचाने का काम इन्द्रियाँ करती है । १) स्पर्शेन्द्रिय-अंग-चमडी-त्वचा जो सारे शरीर पर लगी हई है वह ... ठंडा-गरम (शीत-उष्ण), स्निग्ध-रुक्ष, गुरु-लघु एवं मृदु-कर्कश इन ८ स्पर्शों का अनुभव करती है । अनुभव ज्ञान है । जैसे हवा नहीं दिखाई देती है फिर भी चमडी उसके स्पर्श से हवा के अस्तित्व तथा स्वरूप का भान (ज्ञान) कराती है । आँख से देखने की क्रिया होती है और चमडी से स्पर्श द्वारा ज्ञान होता है । जब वायु का रूप-रंग नहीं है तो वह आँखों से दिखाई नहीं देती है। अतः स्पर्शगुण का ग्राहक हमारी स्पर्शेन्द्रिय बनी। .. रसना-जीभ, स्वाद का ग्रहण करती है । इसलिए रसनेन्द्रिय-जीभ कहलाती है । कडवा (कटु), तीखा, तूरा, खट्टा और मीठा ये मुख्य पाँच रस हैं । खारे रस को मीठों के समूह में या कटु के अन्तर्गत उसकी प्रारंभिक अवस्था में समा लिया है । गंध- १) सुगंध,
और २) दुर्गंध ऐसे २ प्रकार की है, जिसे नासिका ग्रहण करती है । चक्षु इन्द्रिय का काम रूप-रंग ग्रहण करने का है । काला, सफेद, लाल, पीला और हरा इन पाँच रंगों के द्वारा चक्षुइन्द्रिय वैसे पदार्थों का ग्रहण करती है । आत्मा रूपी नहीं है। इसलिए आत्मा के रूप-रंग नहीं होते हैं। अतः आत्मा दृष्टिगोचर भी नहीं होती है। आँखों से देखी नहीं जाती है। कान ध्वनि-शब्द को ग्रहण करनेवाली इन्द्रिय है । सचित्त-अचित्त-मिश्र तीनों प्रकार के शब्दों को कान से सुनते हैं अतः पाँचवी इन्द्रिय को श्रवणेन्द्रिय कहते हैं। ये
डार्विन के विकासवाद की समीक्षा
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