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करके विचारादि किये हैं । और यह भी ध्यान में रखिए कि ... जिन इन्द्रियों और मन से सुख भोगा जाता है उन्हीं से दुःख भी भोगा जाता है । यही जीव का संसार है, जहाँ जीव इन्द्रियों तथा मन आदि से सुख और दुःख दोनों भुगतता रहता है ।
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शरीर है तो इन्द्रियाँ हैं, और इन्द्रियाँ है तो शरीर है। दोनों एक दूसरे के साथ हैं बिना शरीर के इन्द्रियाँ नहीं और बिना इन्द्रियों का शरीर नहीं है । इन्द्रियाँ तो शरीर के द्वार रूप में हैं, अंग रूप हैं । जैसे एक मकान के लिए खिडकी-दरवाजे होने अनिवार्य हैं, ठीक वैसे ही शरीर के लिए भी खिडकी-दरवाजे के रूप में इन्द्रियाँ होनी आवश्यक हैं। मकान में जैसे खिडकी-दरवाजों से हवा - प्रकाश का आना-जाना रहता है वैसे ही इन पाँचों इन्द्रियों रूपी खिडकी-दरवाजे से आत्मा में ज्ञान का आवागमन सतत रहता है। इसीलिए ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । लेकिन शरीर जड - पुद्गल का होने के कारण उसी से बनी ये इन्द्रियाँ भी जड—पुद्गल हैं। ये अपने आप अकेली क्या कर सकती हैं ? आखिर तो इनके मध्य में चेतनात्मा का वास हो तो ही ये कार्यरत रहती हैं । अन्यथा सर्वथा निष्क्रिय बन जाती हैं । इसके स्पष्ट - प्रत्यक्ष उदाहरण के लिए एक प्रश्न पर ध्यान से सोचिए ... कि ... हम आँखों से देखते हैं ? या आखें ही देखती हैं ? कानों से सुनते हैं ? या कान स्वयं सुनते हैं? यदि आप ऐसा कहें कि .... आँख ही देखती है तो ... मृत शरीर में भी तो आँखे यही हैं । जिससे एक मिनिट पहले देखता था, बोलता - सुनता था और अब एक मिनिट पश्चात् मृत्यु के बाद अब बिल्कुल ही नहीं देखता - सुनता है । क्यों ? . देखने की इन्द्रियाँ आँख तो उस समय भी मौजूद हैं। फिर कहाँ सवाल है ? लेकिन आँख के पीछे—–कान के पीछे ज्ञानकारक द्रव्य जो चेतनात्मा है उसकी उपस्थिति अनिवार्य है । वही मुख्य ज्ञान का आधार स्रोत है । इन्द्रियाँ तो ज्ञान की प्राप्ति में माध्यम - सहायक साधन मात्र हैं । इसलिए आँख देखती है, कान सुनते हैं, यह सही नहीं है । आँख से देखते हैं, कान से सुनते हैं यह सही है ।
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"आंख से देखते हैं" इस वाक्य में “से” कर्मणिवाचक है । 'से' का सीधा अर्थ है “के द्वारा” । अतः से–या के द्वारा के अन्दर स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि देखने-सुनने की क्रिया करनेवाला इन आँख और कान से कोई अलग ही द्रव्य है। मुख्य कर्ता वही है । क्रिया का कर्ता वही चेतनात्मा है । यह क्रिया भी ज्ञान की क्रिया है । और आत्मा ज्ञानमय द्रव्य है आत्मा से अतिरिक्त ज्ञान कहीं अन्यत्र नहीं रहता है । ज्ञानपूर्ण ज्ञानमय द्रव्य जगत् में एक मात्र चेतनात्मा ही है । अतः अपने ज्ञान की प्राप्ति के लिए क्रिया भी वही करेगा । इसके लिए आँख कानादि अवयव तो उस क्रिया के सहायक - माध्यम - साधन मात्र हैं ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा