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________________ I होते हैं । इनसे भी आगे पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में पशु पक्षी आदि में भी जो संमूर्च्छिम रूप में उत्पन्न होनेवाले जीव हैं वे भी अमनस्क असंज्ञि होते हैं । लेकिन जो हाथी, घोडे, ऊँट, बैल, बकरियाँ, कुत्ते आदि जीव जो गर्भज होते हैं वे सभी संज्ञी - मनवाले ही होते हैं। इतना ही नहीं, मनुष्यों में जो संमूर्च्छिम मनुष्य हैं वे सभी असंज्ञी मनरहित होते हैं । जैसे मल, मूत्र, मांस, खून, रस्सी, पूयमवादादि तथा कफ-1 - थूकादि में भी उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रिय मूर्च्छिम मनुष्य कहलाते हैं । उनको इन्द्रियाँ पाँचों पूरी होती हैं, लेकिन मन नहीं होता है अतः वे असंज्ञी अमनस्क होते हैं । 1 मन की सहायता चिन्तन, मनन, चिन्ता, विचार करने में होती है। हम जितने भी विचार करते हैं वे सभी मन के जरिये करते हैं । अगर मन हो तो ही विचार करना संभव है अन्यथा बिना मन के कभी भी कोई विचार कर ही नहीं सकता है । नाम कर्म की १०३ प्रकृतियों में से त्रसदशक प्रकृति में से पर्याप्ति नाम कर्म की प्रकृति के आधार पर जीव इन्द्रियाँ और मन निर्माण करता है-बनाता है । इन्द्रियपर्याप्ति कर्म के आधार पर जीव १ ५ प्रकार की इन्द्रियाँ बनाता है । और मनःपर्याप्ति नाम कर्म के आधार पर मनोवर्गणा के अजीव – जड पुद्गल - परमाणुओं को ग्रहण करके विचारयोग्य मन बनाता है । उस मन के जरिए जीव विचार करता है । और जिन जीवों को इस प्रकार की पर्याप्ति नाम कर्म की त्रस प्रकृति का उदय न हो तो वे स्थावर दशक नामक नाम कर्म की प्रकृति के उदय वाले जीव “अपर्याप्ति” कर्म प्रकृति के आधार पर इन्द्रियाँ मनादि की रचना पूर्ण रूप से नहीं कर पाता है । अतः ऐसे जीव असंज्ञी-अमनस्क रह जाते हैं। बिना मन के विचारशक्ती नहीं होती है । अब वे विचार नहीं कर पाते हैं । इस तरह जीव ने बिना मन के बिना आँख - कान - नाकादि के भी अनन्त जन्म इस संसार चक्र में किये हैं । इन्द्रियाँ कम-ज्यादा जरूर पाई लेकिन सर्वथा बिना इन्द्रिय का कोई भी जन्म नहीं किया । अन्त में १ इन्द्रिय तो पृथ्वी - पानी - अग्नि - वायु और वनसपतिकाय के जीवों को अनिवार्य रूप से होती ही है । निगोद जीवों को भी जो सूक्ष्म शरीर होता है उनको भी पहली स्पर्शेन्द्रिय तो होती ही है। आलु -प्याज और निगोद जो साधारण वनस्पति काय हैं, जिनमें एक शरीर में अनन्त जीव एक साथ रहते हैं । उस शरीर में एक इन्द्रिय तो होती ही है । जिस निगोद की अवस्था में जीव ने अनन्त जन्म-मरण धारण किये ऐसी निगोद में एकेन्द्रिय पर्याय में रहकर जीव ने एक इन्द्रिय के द्वारा भी अपना व्यवहार चलाया है। जब जब कम या ज्यादा जितनी इन्द्रिय मिली तब तब जीव ने उतनी इन्द्रियों से अपना व्यवहार चलाया है । जीवन जिया है। मन का भी उपयोग डार्विन के विकासवाद की समीक्षा २२९
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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