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________________ पार उतार सकता है । अतः इस शरीर की इस जीवन-जन्म की पूरी कीमत करनी चाहिए। इसे निष्फल न गुमा दिया जाय यह ध्यान में रखें। संसार में सभी सशरीरी और मोक्ष में सभी अशरीरी ___ मुक्तावस्था में ही जीव सर्वथा अशरीरी रहता है.। बन पाता है । अतः सर्वथा इस शरीर का त्याग हो जाय और वापिस धारण ही न करना पडे, बस, सिर्फ चेतनात्मा अकेली ही अपने पूर्ण शुद्ध स्वरूप में रहे, यही सिद्ध स्वरूप है-मुक्त स्वरूप है । लेकिन मुक्ती के विरुद्ध जो संसार है इस संसार में अनन्त काल तक जीव रहा है। अनादि से जीव ने अनन्तानन्त जन्म लिये हैं। इन अनन्त जन्मों-भवों में जीव ने शरीर तो धारण किया ही है। शरीर के बिना कभी भी जीव संसार में नहीं रह ही नहीं सकता है। और शरीर के साथ जीव कभी भी मोक्ष में नहीं रह सकता है। अतः मोक्ष और संसार दोनों ही परस्पर विरोधि-विपरीत अवस्थाएं हैं। ये दोनों जीव की ही अवस्था है । स्वतंत्र पदार्थ या वस्तु नहीं है । जीव की अवस्था मात्र है। __अतः स्पष्ट कह सकते हैं कि... जीव है तो संसार है और संसार है तो जीव है। जीव के बिना संसार का अस्तित्व नहीं है और संसार के बिना भी जीव का अस्तित्व नहीं रहता है। इसलिए आखिर इतना बडा संसार क्या है ? मात्र जीव और अजीवों के संयोग-वियोग की अवस्था का प्रतीक है। अजीव पुद्गल परमाणुओं के संचय से जीव ने... अपने रहने के लिए शरीर निर्माण किया और उस शरीर में जीव रहने लगा। बिना शरीर के तो रह ही नहीं सकता है। हाँ, बिना मन के जीव संसार में रह सकता है । बिना मन के अनन्त जन्म जीव ने इस चार गति के संसार में किये हैं। यहाँ तक कि पंचेन्द्रिय मनुष्य में भी असंज्ञी मनुष्य बने हैं। जिन्हें असंज्ञी-अमनस्क कहे जाते हैं । संज्ञी + असंज्ञी जीव- संसार के समस्त जीवों को मन के अस्तित्व और अभाव के आधार पर संज्ञी और असंज्ञी इन दो भागों में विभक्त किये गए हैं। संज्ञिनः समनस्काः ।। २५ । संज्ञी अर्थात् संज्ञावाले जीव समनस्क अर्थात् मनवाले बनते हैं। और ठीक इसके विपरीत “असंज्ञिनः अमनस्काः" संज्ञारहित असंज्ञी सभी जीव अमनस्काः अर्थात् मनरहित होते हैं। जैसे १, २, ३, ४ इन्द्रियोंवाले सभी जीव सदा ही असंज्ञि-अमनस्क ही रहते हैं। उदाहरण के लिए ... पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वृक्ष, वनस्पति, कृमि, चिंटी, मकोडे, खटमल, जू, मक्खी, मच्छर, भौरे, तीड, पतंगिये आदि एक से चार इन्द्रियवाले जीवों तक सर्वथा मन होता ही नहीं है। अतः ये सभी अमनस्क ही २२८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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