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अध्याय ५
डार्विन के विकासवाद की समीक्षा
परम पूजनीय ... परमपिता... परमात्मा परमेष्ठी... श्री महावीर प्रभु के चरणारविन्द में ... अनन्त वन्दना करते हुए ...
सरीरमाहु नावत्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ ।
संसारो अण्णवो वृत्तो, जं तरन्ति महेसिणो । आ. २३ / ७३ ।।
उत्तराध्ययन सूत्र आगम शास्त्र में सर्वज्ञ प्रभु श्री महावीरस्वामी फरमाते हैं कि ... यह जो शरीर है यह नौका समान है और आत्मा इसमें नाविक की तरह है । यह सारा संसार एक महासमुद्र के जैसा है। बस, ऐसे अगाध संसार समुद्र को जो पार कर जाय वह महर्षी है । समुद्र को तैरकर भी पार किया जाता है और नौका से भी पार किया जाता है। जैसे लकडे की नौका में बैठकर नाविक उसे चलाकर समुद्र के किनारे पहुँच सकता है । ठीक वैसे ही प्रभु कह रहे हैं कि ... यह शरीर जड पुद्गल परमाणुओं का बना हुआ पिण्ड है । शरीर चेतनात्मा से सर्वथा भिन्न है और चेतनात्मा शरीर से सर्वथा भिन्न- स्वतंत्र द्रव्य है । यद्यपि दोनों मिलकर - एक होकर, एकरसी भाव- समरसीभाव होकर ही संसार में रहते हैं । फिर भी एक-दूसरे से दोनों सर्वथा भिन्न स्वतंत्र द्रव्य है । दोनों का अपने-अपने गुणधर्मों के कारण स्वतंत्र अस्तित्व है । आखिर शरीर जड है । जीव के निकल जाने के बाद मृत शरीर सर्वथा निष्क्रिय निश्चेष्ट होकर पड़ा रहता है। कुछ भी नहीं कर पाता है । क्योंकि कर्ता - भोक्ता - ज्ञाता - दृष्टा - गुणवान जो चेतन आत्मा था वह निकल गया । उसने इस काया को छोडकर अन्यत्र गमन कर लिया। अब उस मृत जड शरीर की कोई कीमत नहीं रहती है । उपयोगिता आवश्यकता भी नहीं रहती है । अतः निरुपयोगी - अनावश्यक समझकर उसे जला दिया जाता है ।
प्रभु कह रहे हैं कि... ऐसे शरीर को नौका बनाकर चेतनात्मा नाविक बनकर उसमें बैठ (रह) जाय और फिर इस अगाध - असीम भयंकर संसार समुद्र को तैर जाय । पार उतर जाय । तात्पर्य यह है कि यही शरीर है, यही जीवन है तो आत्मा को संसार समुद्र से
डार्विन के विकासवाद की समीक्षा
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