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________________ व की स्थिति कहाँ कैसी होती है उसका ख्याल लाने के लिए यह वर्णन किया गया है । जिससे चारों गति के और पाँचों जाति के सर्व जीवों का ख्याल आ सके । आखि जीवों का ही संसार है । अतः समस्त जीवसृष्टि का विचार किया है । यह शाश्वत व्यवस्था है । अनादि - अनन्त कालीन शाश्वत स्वरूप है । इसलिए जीवों को बनाने- उत्पन्न करने आदि का कोई प्रश्न ही नहीं रहता है। जीवों को उत्पन्न करने आदि का विचार करना मिथ्यात्व है । मिथ्या–गलत विचार है । जो शाश्वत स्वरूप जीव और जगत् का है वही और ठीक वैसा ही जानना - मानना ही सम्यग् दर्शन है । अतः जगत के सूक्ष्म से लेकर स्थूल तक के निगोद से लेकर सर्वार्थ सिद्ध तक के, एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सर्वार्थ सिद्ध विमान के सर्वोत्कृष्ट देवताओं तक का वर्णन यहाँ किया गया है। जगत् के समस्त ५६३ जीवों के भेदों द्वारा सर्व जीवों का वर्णन समझकर जानकर उनके प्रति कैसा आचार, विचार और व्यवहार करना यह जानना चाहिए। बस, इन ५६३ के सिवाय एक भी भेद ज्यादा नहीं है और कम भी नहीं है । ५६३ भेद तीनों काल में शाश्वत भेद संख्या है | अतः समस्त जीव सृष्टि का सुयोग्य यथार्थ विचार सर्वज्ञोपदिष्ट दृष्टि से ही करना चाहिए । उसी दिशा में यहाँ संक्षेप में अल्प परिचय कराया गया है । विशेष ज्यादा विशद स्वरूप आगमादि शास्त्रों से जानना - समझना और मानना चाहिए। और उसके बाद उन जीवों के साथ उस प्रकार से व्यवहार आदि भी करना चाहिए । I ॥ इति शुभं भवतु सर्वस्य ॥ २२६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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