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________________ की किसी भी प्रकार की व्यवस्था नहीं होती है । इन्द्रादि की सारी राज्यव्यवस्था पद्धति सिर्फ १३ वे देवलोक तक होती है । इसके ऊपर नहीं। नीचे भवनपति के देवताओं से ऊपर-ऊपर तक आते-आते क्रमशः देखने पर देवताओं के स्वभाव क्रूर-फिर अतिक्रूर और ऊपर-ऊपर वाले अल्पक्रूर अल्पतर-अल्पतमादि स्वभाववाले होते हैं । तदनुसार उनकी लेश्या होती है । नौं ग्रैवेयक देवलोक कल्प = अर्थात् आचार-विचार की सारी व्यवस्था तथा १० प्रकार के इन्द्रादि की सारी व्यवस्था वाला स्वर्ग कल्पोपपन्न देवलोक कहलाता है। परन्तु इसके ऊपर के १४ कल्पातीत देवलोक कहलाते हैं । इनमें इन्द्रादि की व्यवस्था नहीं होती है । कल्प के जैसे आचार-विचार और नियमों की व्यवस्था यहाँ नहीं होती है। इसलिए कल्पातीत कल्प से अतीत अर्थात् परे कहलाते हैं । इनमें नौं ग्रैवेयक और + ५ अनुत्तर को मिलाकर १४ प्रकार के देवता कहलाते हैं । ये बहुत ही ऊँची कक्षा के देवता कहलाते हैं। . लोक पुरुष का जो वैशाख संस्थान पुरुषाकार ब्रह्माण्ड स्वरूप पहले हम देख आए हैं उस लोक पुरुष के ग्रीवा अर्थात् गर्दन भाग में जिनके विमान स्थित हैं, उस ग्रीवा प्रदेश में रहने वाले देवताओं को ग्रैवेयक कहते हैं । ये संख्या में नौ हैं । १) सुदर्शन, २) सुप्रतिबद्ध, ३) मनोरम, ४) सर्वतोभद्र, ५) सुविशाल, ६) सुमनस,७) सौमनस्य, ८) प्रियंकर ९) नंदिकर, ये नौं इनके क्रमशः नाम हैं । नौं ग्रैवेयकों में १ से लगाकर नौंवे ग्रैवेयक तक के विमानवासी देवताओं का कम से कम जघन्य आयुष्य २२ सागरोपम का होता है । तथा अधिक से अधिक उत्कृष्ट आयुष्य ३१ सागरोपम तक का होता है । ये बहुत ही ऊँची कक्षा के देवता होते हैं । यहाँ पर देवियाँ होती ही नहीं हैं । न तो यहाँ उत्पन्न होती हैं तथा न ही यहाँ कभी आती हैं । यहाँ जन्म-मरण तथा देवियों के गमनागमन की भी कोई समस्या है ही नहीं। अतः यहाँ नौं ग्रैवेयकों के देवताओं को कामवासना-विषयवासना की संज्ञा ही नहीं होती है। अर्थात् सर्वथा अभाव नहीं फिर भी अल्पतर प्रमाण की संभावना है । इनके कषायों की मात्रा भी अत्यन्त अल्पप्राय होती है। इनकी लेश्या भी खराब नहीं होती । सदा ही श्वेत लेश्या-मानसिक परिणति होती है। और देह का रंग वर्ण भी श्वेत-सफेद होता है । तथा शरीर की अवगाहना ऊँचाई २ हाथ होती है। ये बड़े ही मनोरम रूप सौंदर्य-लावण्ययुक्त तथा ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न होते हैं । दुःख का तो नाम निशान नहीं है । वैसे भी मनुष्यलोक से अत्यन्त ज्यादा तपश्चर्या धर्माराधना ब्रह्मचर्यादि कठिनतम व्रतों का पालन करके उस संसार २२३
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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