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सारस्वतादित्य-वन्ह्यरुण-गर्दतोय-तुषिताऽव्याबाध-मरुतोऽरिष्टाश्च ॥ ४-२६ ।।
१) सारस्वत, २) आदित्य, ३) वह्नि, ४) अरुण, ५) गर्दतोय, ६) तुषित, ७) अव्याबाध, ८) मरुत और ९ वे अरिष्ट । इस प्रकार इन नौं नामों के धारक लोकान्तिक देवता नौं प्रकार के होते हैं। उनकी संख्या मात्र नौं ही नहीं है । काफी अधिक है । इनकी भी अपनी स्वतंत्र विमान-पृथ्वी है। ये पुण्यशाली तथा नजदीक में मोक्षगामी जीव हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि ये सभी लोकान्तिक देवता सम्यक् दृष्टि श्रद्धासम्पन्न हैं । हाँ,... जब नजदीक में मोक्षगामी है, तो सम्यग् दृष्टि अवश्य होने ही चाहिए । इनके अपने भाव काफी शुद्ध कक्षा के होते हैं । उनको सद्धर्म के प्रति काफी ज्यादा सद्भाव होता है। संसार के दुःख से दुःखी जीवों पर करुणाभाव लाकर... परमात्मा को भी जाकर विनंति करते हैं कि..."हे भगवन् ! आप तीर्थ प्रवर्ताइए।" जिस तीर्थंकर भगवान का दीक्षा लेने का अवसर हो चुका है उसके.१ वर्ष पहले जाकर प्रभु को “जय जय नंदा-जय-जय भद्दा” की ध्वनी करते हुए नाचते नाचते गाते-बजाते खुश-खुशाल होकर ये शब्द बोलते हुए जाते हैं
और फिर प्रभु के तीर्थ स्थापनार्थ दीक्षा ग्रहणार्थ विनंति करते हैं । यद्यपि प्रभू तो जन्मजात तीन ज्ञानधारक ही है। अपने संयमग्रहण के अवसर को भली-भांति जानते ही हैं फिर अपने आचार का पालन करते हुए ये लोकान्तिक देवता विनंति करने आते हैं । और इनकी विनंति को मान देकर... भगवान वर्षीदान देना प्रारंभ करते हैं और वर्ष के अन्त में दीक्षा ग्रहण करते हैं। देवलोक में कल्प व्यवस्था
इन्द्र-सामानिक-त्रायस्त्रिंश-पारिषद्यात्मरक्ष-लोकपालाऽनीक
प्रकीर्णकाऽभियोग्य-किल्बिषिका-शैकशः ।। ४-४॥ देवों की दुनिया भी बहुत ही विशाल है । मनुष्यों की इतनी छोटीसी जनसंख्या में राजा-मंत्री आदि की व्यवस्था करनी पडती है तो फिर जहाँ देवलोक में असंख्य देवताओं की जनसंख्या है वहाँ क्या व्यवस्था की आवश्यकता नहीं पडेगी? पूरी आवश्यकता रहेगी। कल्पवासी कल्पोपपन्न देवताओं के देवलोक में १० प्रकार के देवताओं की व्यवस्था है । उनके प्रकार तत्त्वार्थकार ने इस सूत्र से दर्शाए हैं
१) इन्द्र- जो राजा के स्थानपर-अधिपति कहलाते हैं । हुकम का मुख्य पत्ता इन्द्र के हाथ में होता है । २) सामानिक-जो इन्द्र नहीं होते हैं । परन्तु इन्द्र के जैसे ही इनके समकक्ष होते हैं वे सामानिक कहलाते हैं । ३) त्रायस्त्रिंश-जो पुरोहित और मंत्रियों
संसार
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