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________________ भी अपनी कामेच्छा का शमन कर लेते हैं । इसके ऊपर के ९ वें तथा १० वें देवलोक के देवता इनकी भी वासना जब जब बढती है तब तब वे भी... मानसिक रूप से ही देवियों का चिन्तन–विचार मात्र करते ही... सुख पा लेते हैं। वैसे देवियों के रूप में जन्म तो १ ले तथा २ रे देवलोक तक ही होता है । बस, इसके बाद ऊपर के देवलोकों में देवियाँ नहीं जन्मती है । लेकिन ८ वे देवलोक तक देवियाँ ऊपर जाती जरूर है। वहाँ भी अपना रूप-रंग-सौंदर्य हावभाव नृत्यादि दिखाकर वहाँ के देवताओं को संतुष्ट करती है। ऊपर-ऊपर के देवताओं की वेदोदय की प्रकृति का प्रमाण ही कम होता है अतः थोडे में ही वे शमन कर लेते हैं। बाद के नौं ग्रैवेयक तथा पाँच अनुत्तरवासी देवों की तो वेदमोहनीय प्रकृति का उदय ही नहींवत् अल्पमात्र रहता है। क्योंकि काफी ऊँची तपश्चर्या ब्रह्मचर्यादि का ऊँचा पालन करके तपस्वी–ब्रह्मचारी आदि ऊपर-ऊपर के देवलोक में गए हुए होते हैं । अतः वे काय प्रविचारी आदि नहीं होते हैं । भावि भव में स्वर्ग में देवगति में पुनः कामवासना की यह पाप प्रकृति परेशान न करें, कल वहाँ भी मैथुन सेवन की अशुभ पापकारक प्रवृत्ति से बच सकें इसके लिए भी यहाँ मनुष्य गति में इस उत्तम मानव जन्म में तपश्चर्या, चारित्र पालन तथा ब्रह्मचर्यादि का पालन करना अत्यन्त आवश्यक एवं हितकारी है। जिससे और ऊँचे ऊँचे देवलोक में आत्मा जा सके और वहाँ इस प्रकार के दलदल से बच सके। नौ लोकान्तिक देवों का स्वरूप ' ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः॥४-२५ ॥ वैमानिक १२ देवलोक में जो पाँचवाँ ब्रह्मलोक है उस देवलोक के लोकान्त के क्षेत्र में रहनेवाले विशिष्ट प्रकार के देवताओं को लोकान्तिक जाति के देवता कहते हैं। ये सिर्फ ब्रह्मलोक नामक पाँचवे देवलोक के क्षेत्र के व्यतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं रहते हैं। एक तरफ लोक के अन्त में उनके स्थान अतः लोकान्तिक कहते हैं । लोक को यदि सांसारिक अर्थ में संसार कहें तो लोकान्त अर्थात् संसार का अन्त करने के किनारे बैठे हैं वे लोकान्तिक जाति के देवता कहलाते हैं। इन लोकान्तिक देवताओं के संसार की समाप्ति करके मोक्ष में जाने के लिए मात्र सात-आठ भव ही शेष बचे हैं । अतः निश्चित रूप से ७-८ भव करके वे मोक्ष में जाते हैं । अतः भाव अर्थ में भी लोकान्तिक कहे गए हैं। यह भी उचित है । अतः दोनों तरीकों से लोकान्तिक नाम सार्थक है । ब्रह्मलोक के चारों तरफ चारों दिशा तथा चारों विदिशा में रहते हैं । उसके नौं प्रकार के नामादि इस प्रकार हैं २२० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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