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________________ प्रभाव देवलोक के विशाल एवं लाखों योजन विस्तृत विराट विमान पृथ्वियाँ जगत्स्वभाव से स्थिर ही रहती है । सिंद्धशिला जो ४५ लाख योजन विस्तृत पृथ्वी ही है, स्फटिकमय है, वह भी आधारगत स्वभावानुसार आकाश में स्थिर है । यह विश्वघटना का प्रभाव है। प्राग् ग्रैवेयकेभ्यः कल्पाः ॥४-२४ ।। कल्प अर्थात् आचार । आचार द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है। द्रव्य कल्प में इन्द्र सामानिक-आभियोगिक-अंगरक्षक तथा छोटे-बडे स्वामी-सेवकों आदि का जो सामाजिक व्यवहार द्रव्य कल्प कहा गया है । तथा तीर्थंकर भगवन्तों के कल्याणकादि प्रसंगों पर तथा समवसरण की रचना आदि करके देशनाश्रवणार्थ उपस्थित होना । पूजा-पाठ भक्ती आदि करना.. तथा नंदीश्वर द्वीपादि जाकर शाश्वत तीर्थों आदि की पूजा भक्ती आदि करना रूप कल्प अर्थात् आचार यह सब बारहवें अच्युत देवलोक तक ही होते हैं। अतः १२ वे देवलोक तक कल्पोपपन्न कहलाते हैं। आगे के देवताओं के लिए ऐसे कोई आचार नहीं होते हैं । अतः नौं ग्रैवेयक और अनुत्तर आदि की गणना कल्प में नहीं है । अतः उन्हें कल्पातीत कहा गया है । इसीलिए कल्पोपपन्न और कल्पातीत ये दो भेद होते हैं। कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ।। ४-८॥ शेषाः स्पर्श-रूप-शब्द-मन:-प्रवीचारा . द्वयोर्द्वयोः ।।४-९॥ परेऽप्रवीचाराः ।।४-१० ॥ वाचक मुख्यजी ने इन ३ सूत्रों से तत्त्वार्थ सूत्र में देव गति के देवताओं के जीवन की विषय-वासना की मैथून संज्ञा की प्रवृत्ति का भी घटस्फोट करते हुए कहते हैं कि.. : भवनपति, व्यंतर तथा ज्योतिषी देवता और वैमानिक के प्रथम २ देवलोक के देवता इतने सभी मनुष्यों में जैसे स्त्री-पुरुष स्व देहसंबंध से वैशयिक–रति सुख मैथुन क्रिया से भोगते हैं वैसे ही इतने देवता भी मनुष्यों की तरह मैथुन क्रीडा करके वैषयिक सुख भोगते हैं। अतः उन्हें कायप्रविचारी कहा है। आखिर वेदमोहनीय कर्म की प्रकृति जो सत्ता में पडी है और उसके उदय में आने के कारण कामवासना जागृत होती है । अतः देवता भी अपनी कामवासना की तृप्ती इस तरह करते हैं । २ देवलोक के ऊपर के देवता अर्थात् ३ रे तथा ४ थे देवलोक के देवता देवियों के स्पर्शसुख से अपनी वासना संतुष्ट करते हैं । ५ वे और ६ढे देवलोक के देवता देवियों के मोहक रूपों को देख-देखकर ही अपनी वासना तृप्त करते हैं । ७ वे तथा ८ वें देव लोक के देवता देवियों के गीत-संगीत आदि सुनकर संसार २१९
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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