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इच्छामात्र आहारी मनोभक्षी कहलाते हैं। देवता पुण्योदय से मन से कल्पित स्वशरीर पुष्टिजनक इष्ट मनोज्ञ आहार के शुभ पुद्गल समग्र स्पर्शेन्द्रिय द्वारा ग्रहण करते हैं । १-२ देवलोकवाले देवता २ हजार वर्ष में आहार ग्रहण करते हैं । ३-४ कल्पवासी ७ हजार वर्ष में, आगे के कल्पवासी देवता यथा क्रम से ५ वें- १०,६ ४ - १४,७ वे – १७, ८ वे – १८, ९ वे – १९, १० वे – २०, ११ वे – २१, १२ वे – २३, नौं ग्रैवेयक के देवता – २३ से ३१ हजार वर्ष के अन्तराल में, तथा पाँच अनुत्तरवासी देवता – ३२ हजार वर्ष के अन्तराल में आहार ग्रहण करते हैं । इस देवताओं का भी आहार होता रहता
वेदना
वेदनसंवेदन ! संवेदना सुखद और दुःखद दोनों ही प्रकार की होती है । सुखद हो या दुःखद आखिर तो दोनों संवेदना ही हैं । हाँ, स्वर्गस्थ देवता ज्यादा पुण्यशाली होते हैं अतः पुण्योदय से सुख की शाता वेदना ही ज्यादा भुगतते हैं । जबकि दुःख का प्रमाण बहुत ही अल्प होता है । यद्यपि दुःख का सर्वथा अभाव तो नहीं होता है, क्योंकि अशाता वेदनीय कर्म की सत्ता होती है । लेकिन दुःख बहुत ही अल्प होता है । ठीक इससे विपरीत नरक गति के नारकी जीवों को दुःख ही दुःख होता है । सुख की मात्रा नाम मात्र होती है । स्वर्गस्थ देवों में भी नीचे की निकाय से जैसे-जैसे ऊपर-ऊपर के देवताओं तक.देखते जाएँ तो सुख की मात्रा बढती-बढती जाती है और दुःख की मात्रा घटती जाती है। हाँ, एक बात जरूर है कि... मृत्यु (च्यवन) के काल की छ महीने की वेदना बडी भारी भुगतनी पडती है। उपपात अर्थात् जन्म
पहले विचार कर चुके हैं कि... देवताओं का जन्म हमारी तरह गर्भज जन्म नहीं होता है । फूलों की शय्या में उत्पन्न होते हैं । यही उपपात जन्म कहलाता है । और २ घडी के अंतर्मुहूर्त मात्र समय में तो १६ वर्ष के राजकुमार के जैसे स्वरूप में खडे हो जाते हैं । ११ वे १२ वे आरण और अच्युत देवलोक के ऊपर के ऊँचे देवलोक में अर्थात् नौं ग्रैवेयक तथा ५ अनुत्तरों में अन्य तीर्थिक उत्पन्न नहीं होते हैं । मिथ्यादृष्टि और स्वलिंगी तो ग्रैवेयकों तक भी जाते हैं । सम्यक् दृष्टि चारित्रधारी संयमी ५ अनुत्तर में सर्वार्थसिद्ध तक जाते हैं । १४ पूर्वधारी महापुरुष ५ वे ब्रह्मलोक से सर्वार्थसिद्ध तक जाते हैं।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा