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वैसे-वैसे घटती-घटती कम होती जाती है । उदाहरणार्थ- पहले देवलोक सौधर्मकल्प की कुल संख्या ३२ लाख विमानों की है। दूसरे की २८ लाख की और अन्त में जाते जाते पाँच अनुत्तर विमानों के वैमानिक देवताओं के विमानों की संख्या सिर्फ ५ ही है।
__इस तरह विमानों की संख्या, स्थान, देव-देवी परिवार, शक्ती, इन्द्रिय विषय, अवधिज्ञान के विषय, संपत्ति, आयुष्य स्थिति आदि काफी ज्यादा होते हुए भी ऊपर-ऊपर के देवताओं को अभिमान, ममत्व, अहंकारादि घटते हुए कम से कम होते ही जाते हैं। अर्थात् नीचे नीचे के देवताओं में प्रमाण काफी ज्यादा रहता है । ऊपर के देवताओं में ये सब बहुत कम-अल्प प्रमाण में रहता है। आहारादि का प्रमाण- .
देवताओं की अजीब दुनिया अद्भुत अनोखी जिन्दगी के बारे में विचार करते हुए, ज्ञानी-महाज्ञानी भगवन्तों ने उनके जीवन की श्वासोच्छ्वास-आहार आदि कई विषयों पर काफी प्रयाश डाला है। जघन्य-कम स्थितिवाले देवता ७ लवकाल में १ बार ही श्वासोच्छवास लेते हैं । पल्योपम की स्थितिवाले देवता पूरे एक दिन में एक ही बार श्वास लेते हैं। जिनकी स्थिति जितने सागरोपमों की होती है उतने अर्धमास परिमित काल में वे श्वासोच्छ्वास लेते हैं । हमारे से भिन्न प्रक्रिया होती है। ___ आहार के विषय में जैसा कि हम भोजनादि करते हैं वैसा तो उनको होता ही नहीं है। हमारा तो औदारिक पौद्गलिक देहपिण्ड है। अतः रोटी-चावल-दाल आदि का भोजन करते हैं । लेकिन देवताओं का तो वैक्रिय शरीर है अतः हमारे जैसा रोटी आदि का आहार संभव ही नहीं है।
ओजाहार, लोमाहार और प्रक्षेपाहार आदि भेद से आहार तीन प्रकार का होता है। गर्भस्थान में या देहनिर्माण के समय जिन आहार के पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करके जीव शरीर रचना करता है । वह ओजाहार है । लोम अर्थात् रोम । पूरे शरीर पर लगी चमडी के लोमादि द्वारा ग्रहण किया जाता आहार वह लोमाहार कहलाता है । देवताओं तथा नारकी जीवों को प्रथम ओजाहार जन्म समय में होता है । बाद में सदाकाल आयुष्य पर्यन्त लोमाहार होता है । मुँह में आहार भोजन के केवल ग्रास डाले जाय वह प्रक्षेपाहार कहा जाता है । देवताओं का आहार अचित्त प्रकार का आहार होता है । वैक्रिय पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करके सुमनोज्ञ प्रिय आहार ग्रहण करके परम संतुष्टि का अनुभव करते हैं। जबकि नारकी जीवों को अशुभ कक्षा का अमनोज्ञ आहार रहता है। देवता
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