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________________ हैं। और ये जब सुखी हो ऐसे समय में इनका दर्शनादि हो तो... कृपाप्रसाद भी प्राप्त होता है। जैसा कि वज्रस्वामी मुनि को प्रसन्न होकर विद्या और यश दोनों प्राप्त हुआ था। इस तरह तिर्यक् जुंभक जाति के देवताओं का वर्णन शास्त्रों में मिलता है । पूर्व के ८७ व्यंतर + ८ वाणव्यंतर तथा १० प्रकार के तिर्यक् जुंभक आदि कुल मिलाकर १०५ भेद-प्रभेद बनते हैं। देवताओं के विषय में वर्णन करते हुए जैसे जैसे ऊपर चढ़ते हैं वैसे वैसे और ऊपरी कक्षा के देवों का वर्णन आता है । भवनपति से भी ऊपर की कक्षा के देवता व्यन्तरादि हैं । इन व्यन्तरों में सिर्फ भूत प्रेत ही हैं ऐसी बात नहीं है। जब १०५ प्रकार व्यन्तर निकाय के हैं तो उनमें भूत-प्रेत-पिशाच एक जातिविशेष है । वे भी हैं, अतः उनका भी अस्तित्व जरूर है यह दिखाया गया है । तथा व्यन्तरों में ही यक्षों की भी जाति है। हमारे चौवीशों तीर्थंकर भगवंतों के शासन के अधिष्ठायक देव-देवी सभी यक्ष हैं । वे सभी व्यन्तर जाति में हैं । जैसे पूर्णभद्र मणिभद्र भैरवादि हैं । इसी तरह अम्बिकादेवी–पद्मावतीदेवी आदि भी व्यंतर निकाय की देवियाँ हैं। . ज्योतिषी देवता प्रथम अध्याय में हम. . . . ब्रह्माण्ड विषयक विचारणा करते समय भूगोल-खगोल संबंधी विचारणा कर चुके हैं। जैसे खगोल विषयक विचारणा में जिन सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र तथा तारा आदि के नाम आए हैं वे सब ज्योतिषी देवता हैं । उन ज्योतिष चक्र के देवताओं के विमान हैं। विमान शब्द का अर्थ आज के जैसे उडते हवाई जहाज नहीं है । परन्तु वहाँ की पृथ्वी ही है। वे सदा ही आकाश में गतिशील– भ्रमणशील विमान हैं । ये मेरु पर्वत के चारों तरफ सतत गोलाकार स्थिति में भ्रमण करते संसार १९९
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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