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४-१२ ।। १) किन्नर, २) किंपुरुष, ३) महोरग, ४) गन्धर्व ५) यक्ष, ६) राक्षस, ७) भूत, और ८) पिशाच ये व्यन्तर की मुख्य आठ जातियाँ हैं । इन आठों व्यन्तरों की भी क्रमशः १) १० + २) १० +, ३) १० +, ४) १२ +, ५) १३ +, ६)७ +, ७) ९ +, ८) १६ = कुल ८७ अवान्तर जातियाँ हैं । ये आभूषण धारण करते हैं। इनमें भी विविध प्रकार के चिन्ह आदि होते हैं । कई मनोहर रूपवाले होते हैं । सौम्य दर्शनवाले, रत्नादि के आभूषणों से भी सुशोभित होते हैं । मानोन्मान प्रमाण देहवाले होते हैं । बडे शरीर भी होते हैं और महावेगवाले भी होते हैं । उत्तम स्वर वाले भी होते हैं, सिर पर मुकुट धारण करनेवाले भी होते हैं। कई व्यन्तर जाती के देवता बाग-बगीचों में विविध प्रकार की क्रिया करने में तत्पर होते हैं। इनमें भी स्त्री-पुरुष की तरह देव और देवी के भेद होते हैं । ये भी मनुष्य की तरह मैथुन सेवनादि क्रीडा करते रहते हैं। इनका आयुष्य काफी लम्बा-चौडा होता है। कम से कम १०००० वर्ष का और अधिक १ पल्योपम का आयुष्य होता है। ___व्यन्तर निकाय की ही अवान्तर जाती के ८ वाणव्यंतर देवता भी हैं । वे इस प्रकार हैं- १) अणपन्नी, २) पणपत्री, ३) इसीवादी, ४) भूतवादी, ५) कंदित, ६) महाकंदित, ७) कोहंड और ८) पतंग । इन आठों की गिनती वाणव्यंतरों में होती है। . . तथा अन्न, पान, वस्त्र, वसति, शय्या, पुष्प और फल इतनी वस्तुओं की कमी हो तो पूर्ती करनेवाले, रसपूर्ण करनेवाले ऐसे देवों की जाति को मुंभकजाति कहा है। इनका स्वच्छंदाचार नित्य (वि) जृम्भ होता हुआ अर्थात् बढता हुआ होने के कारण ये ज़ुभक कहलाते हैं। तथा तिर्यक् लोक में आए हुए विचित्र चित्र यमक–समक–कांचनादि पर्वतमालाओं पर रहते हैं । ये जंबूद्वीप के देवकुरु-उत्तरकुरु के चित्रकूट-विचित्रकूट तथा यमक–समक पर्वतमाला तथा अन्य कांचनगिरि एवं वैताढ्य पर्वत तथा मेरुपर्वत पर बसनेवाले हैं । ये सभी पर्वत तिर्यक् लोक में हैं । यहाँ ये देवता रहते हैं। अतः तिर्यक् मुंभक कहलाते हैं। इनका भी १ पल्योपम का आयुष्यकाल होता है। ये हमेशा ही आमोद-प्रमोद में मस्त रहते हैं । मैथुनक्रीडा आदि करते हुए–भोगलीला में लीन रहते हैं। इनकी १० अवान्तर जातियाँ इस प्रकार हैं- १) अन्नमुंभक, २) पानमुंभक ३) वस्त्रजूंभक, ४) लोणभक, ५) पुष्पज़ुभक, ६) फल मुंभक, ७) पुष्पफलजुंभक, ८) शयनजुंभक ९) विद्याजुंभक और १०) अवियत्तजूंभक । श्री भगवतीसूत्र आगम शास्त्र के १४ वें शतक में तो यहाँ तक लिखा है कि... इनका श्राप देने का और अनुग्रह कृपा करने का भी स्वभाव होता है। क्योंकि इनमें इस प्रकार की शक्ती है । ये जब क्रोधातुर होते हैं ऐसे समय यदि कोई इनका दर्शन कर लें तो श्राप देते हैं, जिससे अपयश और अनर्थ होते
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आध्यात्मिक विकास यात्रा