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________________ गहने-आभूषण-वस्त्रादि धारण करनेवाले हैं। इसके यान-वाहनादि भी काफी होते हैं। प्रेमपूर्ण व्यवहार करनेवाले होते हैं। व्यन्तर जाती के देवता व्यन्तर ८ व्यंतर ८ वाणव्यंतर १० तिर्यगझंबक “विविधमन्तरं-भवननगरावासरूपीऽवकाशो येषां ते व्यन्तराः। यदि वा विविधमन्तरं शैलान्तरं कन्दरान्तरं वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां ते व्यन्तराः वि + अन्तर = व्यन्तर - इस व्युत्पत्ति के आधार पर रहने के स्थान विविध अन्तर पर हो उन्हें व्यन्तर कहते हैं । देवताओं की चार प्रकार की जाति के अन्दर व्यन्तर भी एक जाती है । ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक् इन तीनों लोक में भवनों में, शहरों में, आवासों में, तथा भिन्न भिन्न पर्वतों पर, गिरिकन्दराओं, गुफाओं में.... जंगलों में अनेक द्वीपों में व्यन्तर जाती के देवता रहते हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के १००० योजन में से ऊपर के १०० योजन और नीचे के १०० योजन छोड देने पर बीच के ८०० योजन के क्षेत्र में व्यन्तरों का निवास क्षेत्र है। और ऊपर के जो १०० योजन हैं उसमें १० ऊपर के और १० नीचे के छोड देने पर बीच के ८० योजन के क्षेत्र में व्यन्तर निकाय की ही अवान्तर वाणव्यन्तर जाती के देवता भी रहते हैं। वैसे निवासस्थान अनियत भी है । ये व्यन्तर अपनी इच्छानुसार, या आग्रहवश तीनों लोक में चारों तरफ कहीं भी घूमते फिरते भी हैं और कई प्रसंगों में नोकर की तरह मनुष्यों का कार्य भी कर लेते हैं। दुनिया में भूत-प्रेतादि है ही नहीं... यह गलत बात है । हमें आँखों से न दिखाई दे, अतः हम न माने, ज्ञान का यह आधार ही गलत है । दुनिया में सब कुछ आँख से दिखाई देनेवाले ही नहीं होता है । भूत-प्रेतादि अपने शरीर अदृश्य रखते हैं। अतः दिखाई नहीं देते हैं। तीनों लोक के विशाल क्षेत्र में.... चारों गति के क्षेत्र में....जो देवगति है उसमें भी ४ जातियाँ है उसमें व्यन्तर एक जाती है। और व्यन्तरों में भी वाणव्यंतर यह अवान्तर जाती है । लोकप्रकाश-बृहत्संग्रहणी तत्त्वार्थसूत्रादि में इनके प्रकार-भेद-आयुष्य आदि कई बातों के स्वरूप का अद्भुत वर्णन किया गया है । व्यन्तर के ८ प्रकार के नाम इस प्रकार दर्शाए हैं— व्यन्तराः किन्नर-किंपुरुष-महोरग-गन्धर्व-यक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचा: ससार १९७
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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