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________________ I कहलाते हैं, वे वज्रमय कांटे बनाकर भयंकर शाल्वली वृक्ष पर नारकी जीवों को ऊपर चढाकर नीचे खींचते पटकते हैं इस तरह के ये १५ प्रकार के परमाधामी देव अपने अपने स्वभाव के अनुसार नारकी जीवों को बहुत ही ज्यादा पीडा पहुँचाते हैं । दुःखी करते हैं । छेदन–भेदन आदि करके वे स्वयं बहुत ही राजी होते हैं । सुख अनुभवते हैं । यद्यपि नारकी जीव स्वयं स्वकृत कर्मानुसार नरकगति में उत्पन्न होकर दुःखी होते ही हैं फिर भी परमाधामी उन्हें और ज्यादा दुःख देते हैं । १, २ और ३ नरकों में ही परमाधामी जाती के भवनपति देव रहते हैं । शेष चार ४, ५, ६, ७ में तो परमाधामी देव न होते हुए भी नारकी जीव बहुत ज्यादा दुःखद वेदना भुगतते हैं। आखिर इतने भयंकर पापकर्म उपार्जन करके ये परमाधामी देव भी मरकर दूसरे जन्म में अण्डगोलिक मनुष्य बनकर घण्टी (चक्की) में पीसे जाते हुए भारी दुःख अनुभवते हैं। यह संसार ऐसे ही चलता जाता है । ऐसा भावार्थ महानिशीथ सूत्र के चौथे अध्याय में है । भवनपति देव “भवननिवासशीलत्वं भवनपतेर्लक्षणम्” “भवनेषु वसन्तीति भवनवासिनः” अर्थात् भवनों में निवास करनेवाले देवता भवनपति कहलाते हैं । रत्नप्रभा नाम की जो प्रथम नरक की पृथ्वी है वह १,८०,००० योजन जाडी-मोटी है। इसमें से ऊपर के १००० योजन और नीचे के भी १००० योजन छोड दें तो १,७८,००० योजन बचते हैं। इसमें मंजिलों की तरह १३ प्रतर हैं । इनके बीच के १२ आंतरे होते हैं । इसमें से ऊपर-नीचे का एक-एक प्रतर छोडकर बीच के १० आंतर भागों में उनमें भवन बने हुए हैं । दक्षिण से उत्तर की तरफ फैले हुए भवन हैं । ये आवासरूप और भवनरूप दो प्रकार के हैं । असुरकुमार देव आवासों में रहते हैं और शेष सभी भवनों में रहते हैं । इनके भवन बाहर से गोल और अन्तर चौरस - चौकोन प्रकार के कमलों की कर्णिकाओं के आकार वाले भवन होते हैं। ऐसे भवनों में रहनेवाले भवनपति कहलाते हैं । ये भवनपति १० प्रकार के हैं- भवनवासिनोऽसुर-नाग - विद्युत्-सुवर्णाऽग्निवात- स्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः ।। ४- ११ ॥ १) असुर कुमार, २) नाग कुमार, ३) विद्युत कुमार, ४) सुवर्णकुमार, ५) अग्निकुमार, ६) वातकुमार, ७) स्तनितकुमार, ८) उदधिकुमार, ९) कुमार,१०) दिक्कुमार ये १० प्रकार के देवता भवनपति के हैं । भवनपति के ये दसों कुमार कहलाते हैं। क्योंकि कुमारों की तरह ये खेलदिल होते हैं रूपरंगवाले - सौंदर्ययुक्त शरीरधारी होते हैं । ये छटादार वेषधारी 1 १९६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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