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________________ कैसे शुभ-अच्छे और ऊँचे-अच्छेसे अच्छे उच्च-उच्चतर-उच्चतम कक्षा के हैं । इस क्रम से वर्णन किया गया है । इसे इस चित्र द्वारा समझा जा सकता है । सर्वप्रथम अधोलोक की ३ नरकों में परमाधामी देव हैं । यद्यपि ये गति की उपेक्षा से देवगति के भवनपति निकाय के देवता हैं, परन्तु रहना इनकों नरकपृथ्वियों में नारकी जीवों के बीच में है । नारकी जीवों को मारना-पीटना-फाडना-काटना आदि दुःख देने की प्रवृत्ति करते हुए उन्हें दुःख देकर-दुःखी करके ही राजी रहते हैं । इसी में उनको ज्यादा मजा आती है । ये अधम कक्षा के देवता हैं। परमाधामी देव भवनपति की ही जाती के ये १५ प्रकार के परमाधामी है- १) अम्ब, २) अम्बरीश, ३) शबल, ४) श्याम, ५) रौद्र ६) उपरुद्र, ७) असिपत्र, ८) धनु, ९) कुम्भ, १०) महाकाल, ११) काल, १२) वैतरण, १३) वालुक, १४) महाघोष १५) खरस्वर इन नामों की १५ जातियाँवाले परमाधामी देव हैं । नारकी जीवों को दुःख देने में भी इनके भिन्न भिन्न कार्यक्षेत्र हैं । प्रथम अम्ब जाती के परमाधामी देव-नारकी जीवों को ऊपर फेंकने–पटकने का मुख्य काम करते हैं। दूसरे अम्बरीश जाती के देव नारकियों को भट्टी में पका सके ऐसे टुकडे करते हैं। तीसरे शबल जाति के नारकियों के हृदय तथा आतों के टुकडे आदि करके छेदन-भेदन का ही मुख्य काम करते हैं। चौथे श्याम जाति के देवों की मुख्य आदत लकडे की तरह करवत से काटने की है । पाँचवे रौद्र देवों का कार्य-भाले से भेदन करने का है । छटे उपरुद्र जाति के देवों का काम नारकियों के अंगोपांगों को तोडने का है। सातवें असिपत्र देवता तलवार जैसे पत्तों का जंगल खड़ा करने का काम करते हैं । आठवें धनुष्य पर बाण चढाकर छोडकर मारनेवाले होने से उनकी जाति का नाम धनु है । नौंवे परमाधामी कुम्भजाती के हैं जो नारकी जीवों को पकाने का काम करते हैं । मांस के टुकड़े निकालकर हमाम दस्ते से कूट कूट कर खाते हैं । ग्यारहवे काल जाती के देवता- कुंड आदि में डुबाना-पकाना आदि करते हैं । बारहवें वैतरण जाती के देव... नारकियों को रक्त-रुधिर पूय–मवाद से भरी हुई वैतरणी नदी बनाते हैं । इसलिए वे वैतरण जाती के कहलाते हैं । तेरहवें वालुक जाती के देव-कदम्ब पुष्प आदि की आकारवाली वालु-रेती में नारकियों को शेकने का काम करते हैं । चौदहवें जाती के परमाधामी महाघोष इसलिए कहलाते हैं कि वे डरकर भागनेवाले नारकी जीवों को महाघोष = जोर से चिल्लाकर बडे डरावने शब्दप्रयोग कर रोकते हैं । और अन्तिम पन्द्रहवें जाती के परमाधामी जो खरस्वर संसार १९५
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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