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से विशद स्वरूप देवताओं का भी समझ सकते हैं । तत्त्वार्थसूत्र के चौथे अध्याय में, बृहत्संग्रहणी, लोक प्रकाश, तथा पन्नवणा सूत्र, जीवाभिगमादि आगम शास्त्रों में आधारभूत प्रामाणिक वर्णन प्राप्त है। जिसके आधार मानवी जिज्ञासा संतोषी जा सकती है और अनोखी जानकारी प्राप्त करके ज्ञानवृद्धि तथा श्रद्धा की वृद्धि भी की जा सकती है।
प्रथम पुस्तिका में ब्रह्माण्ड का विचार करते समय ऊर्ध्वलोक का भौगोलिक वर्णन किया गया है । ऊर्ध्वलोक को ही स्वर्ग-देवलोक कहा गया है। अतः भौगोलिक तथा ब्रह्माण्डीय स्वरूप उस अध्याय से वहाँ से समझकर, देवताओं के जीवनादि के बारे में विशद जानकारी वहाँ से प्राप्त करें।
देवता ४ प्रकार के बताए गए हैं- देवाश्चतुर्निकायाः। . भवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक.
देवताओं को इन ४ जाती में विभक्त किया गया है। ये ४ प्रकार के हैं । इनके भी भेद-प्रभेद अनेक हैं
दसहा-भवणाहिवई, अट्ठविहा वाणमंतरा हुंति।
जोइसिया पंचविहा, दुविहा वेमाणिया देवा ।। जीव विचार प्रकरण में संक्षेप में भेद बताते हुए १०, ८, ५ और २ ऐसे मुख्य २५ भेद बताए हैं । इनके अवान्तर भेदों प्रभेदों की संख्या ज्यादा बताई गई है । तत्त्वार्थ सूत्रकार ने ३५ की संख्या इस प्रकार बताई है- दशाऽष्ट-पञ्च-द्वादश-विकल्पाः कल्पोपन्नपर्यन्ता ।। ४-३ । १० + ८ + ५ + और १२ कल्पोपन्न को गिनाते हुए ३५ की संख्या बताई है । भेदों के साथ प्रभेदों की गिनति करते हुए ९९ की कुल संख्या भी बताई गई है । वह इस प्रकार है
- देवता
२५ भवनपति २६ व्यन्तर १० ज्योतिषी ३८ वैमानिक १० असुरकुंमार १५ परमाधामी । ५ चर ५ अचर ८ व्यंतर ८ वाणव्यंतर १० तिर्यग्झंबक
२४ कल्पोपन्न १४ कल्पातीत
१२ कल्पवासी ३ किल्बीषिक ९ लोकानतिक
९ ग्रैवेयक
५ अनुत्तर
संसार
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