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जीव सेंकडों बार-बार बार कर चुके हुए होते हैं । अतः अपने पाप कर्मों की सजा तो उन्हें वहाँ पर उन्हें भुगतनी ही है । संक्लिष्टसुरोदीरितदुःखश्च प्राक् चतुर्थ्याः३-५ । चौथी तक ऐसे क्रूर असुर परमाधामियों द्वारा दी गई तीव्र वेदना को नारकी जीव भुगतते ही रहते हैं। परस्परोदीरितदुःखाः ।। ३-४ ।। परमाधामी असुर तो नारकियों को दुःख देते ही हैं लेकिन नारकी जीव परस्पर भी अन्दर अन्दर कलह-झगड़ा-मारपीट करना, लडते रहना आदि भयंकर रीत से दुःखी होते ही रहते हैं। पिछली जिन नरकों में परमाधामी नहीं है वहाँ भी ये नारकी जीव क्षेत्र कृत, परस्पर कृत आदि दस प्रकार की वेदनाओं को भुगतते भुगतते बहुत लम्बा आयुष्य बिताते रहते हैं।
___ आश्चर्य की बात तो यह है कि... नरक के इस नारकी जीवों के शरीर ऐसे वैक्रिय शरीर होते हैं कि जो कितनी भी बार काटा जाय, कितने भी छोटे टुकड़े किये जाय तो भी ...वे सभी टुकडे पारे की तरह फिर से जुडकर वापिस खडे हो जाते हैं । आयुष्य भी इतना प्रबल होता है कि जल्दी मर भी नहीं सकते हैं । आत्महत्या नरक में होती ही नहीं है इसलिए जब तक आयुष्य पूर्ण समाप्त न हो वहाँ तक मरते भी नहीं है । और आयुष्य भी काफी लम्बे सागरोपमों के लम्बे होते हैं । एक सागरोपम बरोबर असंख्य वर्ष होते हैं तो ७ वीं नरक में ३३ सागरोपम का उत्कृष्ट आयुष्य रहता है । सातवीं नरक में थोडी संख्या में नारकी होते हैं लेकिन १ से ६ तक की नरकों में नारकियों की संख्या असंख्य होती है। क्योंकि तिर्यंच-पशु-पक्षी की गति और मनुष्य की गति में से-दोनों गति में से असंख्य जीव नरक में आते ही रहते हैं । सिर्फ देवगति के देवता मरकर नारकी नहीं बनते हैं । और नरक के नारकी जीव मरकर वापिस नारकी के रूप में नहीं जन्मते हैं । यह संक्षेप में सामान्य वर्णन यहाँ किया है। विस्तार से लोक प्रकाश, बृहत्संग्रहणी, उत्तराध्ययन एवं सूत्रकृतांग आगमशास्त्रादि अनेक शास्त्रों से समझना चाहिए। देवगति एवं देवताओं का वर्णन
देव गति समस्त संसार में जो जीवसृष्टि है उसमें से हम ३ गति के जीवों का विचार कर आए हैं। अब क्रम प्राप्त यहाँ |ष्य चार गति में चौथी देवगति है उसका वर्णन करते हैं। देवगति के देवताओं के विषय में भी अनेक भ्रान्तियाँ-भ्रमणाएँ एवं शंकाएँ मानव मन में बनी रहती . हैं । अतः शास्त्रीय वर्णन के आधार पर हम काफी गहराई। ति य च गति
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आध्यात्मिक विकास यात्रा