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५ महाविदेह इस तरह १५ कर्मभूमियाँ हैं । इसके अतिरिक्त ५ हिमवंत क्षेत्र + ५ हरिवर्ष + ५ हिरण्यवंत क्षेत्र + ५ रम्यक् क्षेत्र + ५ देवकुरु क्षेत्र + ५ उत्तरकुरु क्षेत्र ये ३० अकर्मभूमियाँ हैं । तथा लवण समुद्र में जंबूद्वीप के पर्वत, हिमवन्त पर्वत तथा पर्वत की जो दाढाओं का भाग निकला हुआ है उसमें दोनों तरफ ऊपर-नीचे ऐसी शाखाएँ दंतशूल की तरह निकली हुई हैं। वे अंतर्द्वीप हैं। ऐसे ५६ अंतद्वीप हैं । इस तरह १५ + कुल मिलाकर १०१ क्षेत्र हैं। इन १०१ क्षेत्रों में मनुष्य उत्पन्न होते हैं । अतः ये मनुष्यक्षेत्र कहे जाते हैं । ये २१/२ द्वीप परिमित ही हैं । बस, इससे आगे नहीं हैं ।
३० + ५६
पुष्करवर द्वीप जो १६ लाख योजन के विस्तारवाला है । इसके बीचोबीच मानुषोत्तर पर्वत फैला हुआ है । जिसके उत्तर में (बाद में) मनुष्यों की आबादी उत्पत्ति जन्म-मरण नहीं है ऐसे मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर ही मनुष्यक्षेत्र है । यह पूर्व से पश्चिम तक ४५ लाख योजन के विस्तारवाला है ।
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इसमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्य-जन्म की दृष्टि से ३ भाग में बंटे हुए हैं । १०१ गर्भज पर्याप्त + १०१ गर्भज अपर्याप्त + १०१ संमूच्छिम । इस तरह कुल ३०३ प्रकार के मनुष्य होते हैं । इनमें १०१ गर्भज अपर्याप्त तथा १०१ संमूर्च्छिम तो अल्पकालिक हैं । आयु कम है, मात्र अंतर्मुहूर्त | अतः मुख्यगणना १०१ गर्भज पर्याप्त की ही होती है | इनही का मुख्य व्यवहार होता है । वैसे भौगोलिक वर्णन पहले कर चुके हैं। वहाँ से अढाई द्वीप आदि विषय भूगोल संबंधी समझ लेना चाहिए। मनुष्यों आदि के भेदों को समझने के लिए भौगोलिक स्वरूप समझना अत्यन्त आवश्यक होता है । तभी ये भेद समझ में आ सकेंगे । आर्याग्लिशश्च ।। ३ - १५ | तत्त्वार्थकार ने आर्य मनुष्य और म्लेच्छ अर्थात् अनार्य मनुष्य ऐसे दोनों प्रकार के मनुष्यों का वर्णन किया है । इन १०१ प्रकार के मनुष्यों के जो निवास क्षेत्र हैं, उनमें भरत क्षेत्र के ६ खण्डों में २५ ॥ आर्य देश हैं । आर्यदेश में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य आर्य कहलाते हैं । जहाँ देव - (भगवान) गुरु और धर्मादि सुलभ है। ऐसी भूमि के क्षेत्र आर्य देश हैं । इससे ठीक विपरीत अनार्य देश हैं और वहाँ उत्पन्न हुए मनुष्य अनार्य कहलाते हैं ।
संसार
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