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________________ नहीं निकल पाएगा। और हम इस संसार चक्र के परिभ्रमण में जितना ज्यादा काल बिताते ही जाएंगे, वहाँ तक उस जीव को निगोद के गोले में काफी ज्यादा विलंब होगा और वह बेचारा भयंकर निगोद की जन्म-मरण की वेदना सहन करता ही जाएगा। उसे छुटकारा दिलाना हमारे हाथ में है । अतः इस संसारचक्र में हमने जो दूसरे आनेवाले की जगह रोक रखी है वह जल्दी खाली करनी चाहिए। और खाली करने के लिए हमको संसार में से जल्दी से जल्दी मोक्ष में जाना ही चाहिए। मोक्ष में जाने के लिए जो धर्म की व्यवस्था है उसका आलंबन लेना चाहिए और धर्म का आलंबन लेने के लिए धर्म के संस्थापक-प्ररूपक देव-गुरु-भगवान का आलंबन लेना चाहिए। जो जो मोक्ष में गए हैं वे जिस मार्ग पर चले हैं उस मार्ग को हमें भी स्वीकार करके उसी मार्ग पर चलना चाहिए । बस उसी मार्ग को धर्म कहा है। और उस मार्ग पर चलने की क्रिया को धर्माराधना कहा है । और ऐसी धर्माराधना जहाँ हुई है, जिस क्षेत्र में.. करके जो मोक्ष में गए हैं उन्हें तीर्थक्षेत्र कहा है । शत्रुजय सम्मेदशिखरजी जो तीर्थक्षेत्र है, जहाँ से कितनी बडी संख्या में कितनी आत्माएं मोक्ष में गई है? काल जरूर बदलता गया है परन्तु क्षेत्र तो वही रहा है । इस तरह बीते हुए अनन्तकाल में अनन्त आत्माएं मोक्ष में गई हैं । अतः ये पावन भूमि हमें भी पावन करती है। अतः ये तारक होने से तीर्थ कहे जाते हैं। इतने संसार में से मोक्ष में गए अतः उनके पीछे कितनी अनन्त आत्माएं मोक्ष में गई है ? इस का द्योतक-प्रतीक यह तीर्थ है । यह संसार का क्रम है जो निरंतर चलता ही रहता है । ऐसी प्रेरणा लेकर हमारा भी यह कर्तव्य हो जाता है कि हम भी यथासंभव शीघ्रातिशीघ्र इस संसारचक्र से मुक्त होकर सिद्ध बन जाए, क्योंकि हमारे कारण भी हमारे पीछे कोई न कोई निगोदस्थ जीव रुका हुआ है। उसे निगोद के अनन्त दुःख में से बाहर निकालने की करुणा-दया से भी हमें मोक्ष में जाने के लिए जल्दबाजी करनी ही चाहिए। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों का स्वरूप पत्तेय तरुं मुत्तुं पंचवि पुढवाइणो सयल लोए। सुहुमा हवंति नियमा, अंतमुहुत्ताऊ अद्दिसा ।। प्रत्येक वनस्पतिकाय के वृक्षों को छोड़कर शेष पृथ्वीकाय, अपकाय-पानी के जीव, अग्नि के जीव, वायु के जीव और साधारण वनस्पतिकाय इन पाँचों स्थावर के सभी सूक्ष्म जीवों का अस्तित्व सम्पूर्ण १४ राजलोक के समग्र क्षेत्र में सर्वत्र व्याप्त है । ये सभी सूक्ष्म १८० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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