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निगोद छत्तीशी, लोकप्रकाश, पन्नवणा तथा भगवतीसूत्र आगमशास्त्रादि में सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित निगोद के जीवों का अद्भुत - अनोखा स्वरूप अवश्य पढने जैसा है । हम भी तो एक दिन निगोद के गोले में ही थे । हमारी भी उत्पत्ति वहीं से हुई है । हम सभी जीव उसी निगोद की खान में से आए हैं। एक ऐसा वैश्विक नियम शास्त्रकार भगवंत बताते हैं कि
सिज्झन्ति जत्तिया किर इह संववहार रासिमज्जाओ इन्ति आगाइ वणस्सइ मज्जाओ तत्तिआ तम्मि | यद्व्यावहारिकाङ्गभ्यो यावन्तो यान्ति निर्वृतिंम् । निर्यान्ति तावन्तोऽनादि निगोदेभ्यः शरीरिणः ।।
श्री पन्त्रवणा आगम शास्त्र तथा लोकप्रकाश ग्रन्थ के उपरोक्त श्लोक में फरमाया है कि.... जितने जीव इस संसार के बंधन से छूटकर मोक्ष में जाते हैं उतने जीव सूक्ष्म साधारण वनस्पतिका रूप निगोद के गोले में रहे हुए अव्यवहार राशी निगोद के जीवों में से गोले में से बाहर आते हैं । संसार के व्यवहार में आते हैं । सूक्ष्म से सर्वप्रथम स्थूल रूप धारण करते हैं । यद्यपि है साधारण वनस्पतिकाय में ही, लेकिन सूक्ष्म में से स्थूल की कक्षा में आने का तो हुआ है। जो अदृश्य थे वे अब स्थूल बनकर संसार के व्यवहार में तो आए । अब यहाँ से फिर आगे पृथ्वीकाय आदि में जाते जाते आगे बढेंगे । बढते जाएंगे । इस
तरह हमारी विकास यात्रा - उत्क्रान्ति निगोद से ही शुरू होती है । हम वहीं से निकल कर बाहर आए हैं और क्रमशः आगे बढते - बढते आज मनुष्य तक पहुँचे हैं ।
जीवों का मोक्षगमन
निगोद के गोले से
जीवों का बाहर ओरामन
संसार
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