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________________ 1 जीव बाहर निकल कर जाते हैं फिर भी निगोद में कुछ भी कमी नहीं आती है । और सिद्ध अनन्त की संख्या में हैं वहाँ बढते ही जाते हैं फिर भी अनन्त ही रहते हैं । जैसे महा सागर में से ... कुछ बूंदे निकाल भी लें तो उसमें क्या फरक पडता है ? .... . वैसे ही निगोद में जहाँ अनन्तानन्त हैं उसमें से जीव निकलते ही जाते हैं तो भी निगोद में कोई कमी नहीं आती है । निगोद की इस सूक्ष्मतम स्थिति में जीवों को सतत जन्म-मरण ही करते रहना पडता 1 है । जैसे दिखावे के लिए.... लगाई हुई जीरो के गोले की लाइटें कितनी तीव्रता से बन्द होती हैं - चालू होती हैं-खुलती हैं इसी तरह इस निगोद में जीवों का सतत जन्म-मरण होता ही रहता है । हम एक श्वासोच्छ्वास लेते हैं इतनी देर में तो निगोद में १७१/२ बार जन्म-मरण हो जाते हैं । इस तरह २ घडी के १ अन्तर्मुहूर्त काल में ६५५३६ जन्म-मरण निगोद में हो जाते हैं । जन्म से लेकर मृत्यु तक का निगोद के जीवों का एक जीवन २५६. आवालिका प्रमाण शास्त्रकार भगवंतों ने बताया है। संसार के समस्त जीवों के जन्म-मरण में २५६ आवलिका का यही सबसे छोटे से छोटा जीवन है । अतः इसे क्षुल्लक भव कहा है। आवलिका यह काल का छोटा विभाग है। जैसे कलाक- मिनिट - सेकंड आदि का वर्तमानकालीन कालव्यवहार है ठीक वैसे ही समय आवलिका का कालव्यवहार है । जैसे परमाणु यह पुद्गल का सूक्ष्मतम अन्तिम स्वरूप है ठीक इसी तरह समय यह काल की अविभाज्य सूक्ष्मतम इकाई है । ऐसे असंख्य समयों की १ आवलिका बनती है । ऐसे २५६ आवलिका का १ निगोद के जीव का जीवन होता है। यह छोटे से छोटा जीवन इस संसार में है । इस तरह इतने छोटे-छोटे जीवन धारण करता हुआ निगोद का जीव जो अनन्तकाल तक निगोद में रहता है, उसके कितनी बार जन्म-मरण होते होंगे ? इसके उत्तर में अनन्त बार शब्द का प्रयोग किया गया है। अनन्त बार यहाँ जन्म मरण होते ही रहने के कारण ...निगोद में वेदना भी अनन्तगुनी है। श्री भगवतीसूत्र आगम शास्त्र की वृत्ती में कहा है कि— जं नए नेरइया दुक्खं पावंति गोयमा तिक्खम् । तं पुण निगोअजीवा अणंतगुणियं वियाणाहि ॥ श्री गौतम गणधर के प्रश्न के उत्तर में श्री वीर प्रभु फरमाते हैं कि हे गौतम! नरक गति के अन्दर रहे हुए नारकी जीव छेदन - भेदन आदि का जितना दुःख पाते हैं उनसे भी अनन्तगुनी वेदना निगोद के जीव पाते हैं । आध्यात्मिक विकास यात्रा १७४
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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