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________________ लिए प्रयुक्त है । अतः भूमि की सतह के नीचे उत्पन्न होने वाले कन्द आदि अनन्त काय हैं । जो कि अनन्त जीवों का पिण्ड है। अतः इनकी हिंसा सर्वथा वर्ण्य है। सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय के जो निगोद के गोले हैं उनमें अनन्त जीव हैं । वहीं से विकास की यात्रा शुरू होती है । आगे बढना होता है । सर्वप्रथम सूक्ष्मता में से स्थूल स्वरूप में आगमन होता है । यह भी विकास है। शरीर स्थूल-बड़ा हुआ है। सूक्ष्म अवस्था में तो दिखाई नहीं देता था लेकिन स्थूल अवस्था में तो दिखाई देता है । अतः अब इनकी हिंसा से बचना सरल है । सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय में दो प्रकार हैं । १) व्यवहार राशी निगोद और २) अव्यवहार राशी निगोद जो संसार में आगे के व्यवहार में जाकर वापिस आया हो उसे व्यवहार राशी निगोद कहते हैं । सूक्ष्म में से आगे बढ़कर स्थूल-बादर में गया... वहाँ से और भी काफी आगे गया हो.... और फिर कर्मवश पतन हुआ हो.... वह गिरकर वापिस निगोद में आकर जन्म धारण करे तो.... वह व्यवहार राशी निगोद जीव कहलाता है। लेकिन जो अभी तक कभी भी सूक्ष्म साधारण की अवस्था से निकलकर बाहर कभी गया ही नहीं है, बाहर की किसी भी योनि में अभी तक जन्म लिया ही नहीं है वह अव्यवहार राशी निगोद जीव कहलाता है। ये अनन्त की संख्या में हैं। यही जीवों की खान है। यहाँ से ही निकल निकलकर जीव संसार के व्यवहार में आते जाते हैं। फिर भी इतनी अनन्त की संख्या है कि..अनन्तकाल के बाद भी यह संख्या समाप्त होनेवाली नहीं है । अनन्त काल बीतने के बाद भी यदि पूछा जाय कि.. निगोद में कितने जीव हैं तब भी “अनन्त” का ही उत्तर आएगा। शास्त्रकार कहते हैं कि- : जइआइ होइ पुच्छा, जिणाणमग्गंमि उत्तरं तइया। इक्कस्स निगोयस्स य अणंत भागो य सिद्धिगओ। जब भी कभी अनन्तकाल के बाद भी यह प्रश्न पूछेगे कि... कितने मोक्ष में गए? तब भी अनन्त की संख्या में ही उत्तर रहेगा और उस दिन निगोद में कितने जीव रहे... इस प्रश्न के उत्तर में भी “अनन्त जीव” यही उत्तर जैन शासन में मिलेगा। अतः एक निगोद का भी अनन्तवाँ भाग ही मोक्ष गया समझना चाहिए। और निगोद में अनन्त x अनन्त = अनन्तानन्त सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकायिक जीवों का अस्तित्व है और रहेगा । इसीलिए कहते हैं कि- “घटे न राशी निगोद की बढे न सिद्ध अनन्त" निगोद की राशि में से ही संसार १७३
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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