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________________ एगस्स दोह तिह व संखिज्जाण व न पासिउं सक्का । दीसंति सरीराइं निगोयजीवाणणंताणं लोगागास पएसे निगोयजीवं ठवेहि इक्किक्कं । एवं विज्माण हवंति लोगा अणंता उ १७२ ।। ५८ ।। I श्री पज्ञापना (पन्नवणा) आगम शास्त्र में निगोद के स्वरूप के बारे में कहा है किसाधारण वनस्पतिकायिकजीवों की एक ही समान काल में एक साथ उत्पत्ति (जन्म) होती है । एक ही साथ प्राणापानग्रहण - श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण होता है । एक ही साथ उच्छ्वास - निःश्वास होता है । आहारादि पुद्गल परमाणुओं का जो एक ग्रहण करता है वही सभी एक साथ ग्रहण करते हैं । अर्थात् सबका आहार निहार एक साथ होता है । क्योंकि अनन्त जीवों के लिए शरीर एक ही है । अतः आहार एक ही शरीर द्वारा सबके लिए एक साथ ही होगा। साधारण जीवों का यही लक्षण है कि साधारण अर्थात् सभी में एक साथ - एक समान ही आहार - निहार - श्वासोच्छ्वास एवं उत्पत्ति-मरणादि सब होता है । निगोद की स्थिति में जहाँ अनन्त जीव एक साथ परिणत हुए हैं । अतः वहाँ सब कुछ एक साथ ही चलता है । जैसे तपाये हुए लोहे का एक गोला चारों तरफ से अग्नि से व्याप्त हो जाता है वैसे ही निगोद का एक गोला चारों तरफ से संपूर्ण जीवों से भरा हुआ रहता है । अनन्त जीवों का एक साथ एक गोले में रहना है 1 अब इनमें से एक—दो या संख्यात - असंख्यात निगोद के जीवों का शरीर भी दृष्टि गोचर होना संभव नहीं है क्योंकि अतिसूक्ष्मता दृष्टिगोचर नहीं होती । यह तो सिर्फ़ ज्ञानगम्य है एक-दो-चार आदि जीवों के स्वतंत्र अलग-अलग शरीर तो निगोद में है ही नहीं । अतः दिखाई देंने का सवाल ही नहीं है । वहाँ तो अनन्त जीवों का एक साथ - समूहात्मक पिण्ड ही शरीर है और वह भी सूक्ष्मतम है । I ।। ५७ ॥ अब यही गोले एकत्र होते होते ... एक के अनेक गोलों का समूह बनता है । जुडते हैं... ऐसे जुड़ते समयं अनेकों का पिण्ड बनता है तब बादर - स्थूल अवस्था प्राप्त होती है। तभी वे दृष्टिगोचर होते हैं । उस बादरं निगोद के जीवों का स्वरूपआलु -प्याज - लसून - गाजर-मूला - शकरकंद आदु-अदरक, अंकुरित धान्य, बिना नसोंवाले कोमल पत्ते - जिनको किसलय कहते हैं, बीज न बना हो तब तक की फल की अवस्था आदि स्थूल साधारण वनस्पतिकायिक जीवों का स्वरूप है। ये जीव और अपने जीव-जीवत्व की दृष्टि से सभी एक समान ही हैं । अतः सर्वथा इनकी हिंसा वर्ज्य है । अनन्तकाय शब्द में- काय शब्द शरीरवाची है । और अनन्त शब्द जीवों की संख्या के आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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