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उत्पत्ति नहीं है परन्तु मूलभूत अस्तित्व यहाँ पर है । यहीं से क्रमशः जीव बाहर आते रहते हैं । यहाँ अनन्त की संख्या में है । बृहत्संग्रहणी शास्त्र में लिखते हैं कि
गोला य असंखिज्जा, अस्संखनिगोअओ हवइ गोलो।
एक्केकम्मि निगोए, अणंतजीवा मुणेयव्वा ।। ३०१ ।। संपूर्ण लोक में गोले असंख्य हैं। असंख्य-असंख्य गोले एक बनते हैं। उसे निगोद संज्ञा दी है । ऐसे एक-एक गोले में अनन्त-अनन्त जीवों का अस्तित्व है । ये सभी सूक्ष्मरूप हैं-अदृश्य हैं । अतः चर्मचक्षु से दृष्टिगोचर होते ही नहीं है । सचमुच तो ये सर्वज्ञ के ज्ञान से ही गम्य हैं । ज्ञानग्राह्य हैं । अनन्त ज्ञानी-सर्वज्ञ के केवलज्ञान की ही यह विशेषता है कि ऐसा स्वरूप जगत् को बता सके हैं । जगत् के जीवों पर कितना महान उपकार किया है । इस प्रकार इन निगोद के गोलों के जीवों का स्वरूप बताने से सर्वज्ञ की सर्वज्ञता का प्रत्यक्ष रूप से अस्तित्व सिद्ध होता है । सर्वज्ञ के सिवाय अन्य कोई भी नहीं बता सकता ऐसा स्वरूप । अतः जहाँ जिन मतों में धर्मों में सर्वज्ञ के स्वरूप को नहीं स्वीकारा ग ।। है. वहाँ ऐसी एक भी बात आती ही नहीं है। यहाँ निगोद के स्वरूप को सर्वज्ञ प्रभु और कितना विशद समझाते हैं वह आगे देखिए
यह जो निगोद का गोला है इसमें अनन्त जीव एकसाथ पडे हुए हैं। इन सबके लिए एक ही शरीर है। वह गोला रूप है । उसी में सबको एक साथ रहना है । जब गोला ही अदृश्य है तो जीवों का दिखाई देना तो संभव ही नहीं है । इन सबको उसी गोले में अनन्त बार मरना है और अनन्त बार जन्म लेना है उस गोले में ही । शास्त्रों में कहा
है किसमयं वक्कंताणं समयं तेसिं सरीरनिव्वती। . समयं आणुग्गहणं समयं ऊसासनीसासो इक्कस्स जंगहणं बहूण साहारणाणतं चेव । जं बहुयाणं गहणं समासओ तं पि इक्कस्स
॥५४॥ साहारणमाहारो साहारणमाणुपाणगहणं च। साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं एवं
॥५५॥ जह अचगोलो धंतो जाओ तत्ततवणिज्जसंकासो। सव्वो अगणि परिणओ निगोयजीवे तहा जाण
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॥५३॥
॥५६॥
संसार
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