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जीनेवाले मछली आदि अनेक प्रकार के जीव हैं । वे अलग से २ इन्द्रियवाले, ५ इन्द्रिय वाले हैं। लेकिन पानी स्वयं एकेन्द्रिय जीव है । नदी, तालाब, कुएँ, झरने, बरसात, समुद्रादि अनेक स्थलों का भिन्न भिन्न पानी होने से अलग-अलग प्रकार का पानी गिना जा सकता है । अन्यथा एक ही है।
अग्नि- अग्नि की जो ज्वाला दिखाई देती है वह भी अग्निकाय के जीवों का शरीर-काया है । उसमें रहनेवाले जीव अग्निकायिक जीव । कहलाते हैं । शरीर को तो सिर्फ जीव ही बना सकता है.. . धारण कर सकता है। अतः वह जीव कहलाता है। वह भी आहार लेता है । प्राणवायु ऑक्सीजन ग्रहण करता है । उसके भी आयुष्य-काल आदि की गणना की गई है। सिगडी के जलते कोयले की भट्टी की, बिजली की, तिनके आदि रूप में इत्यादि ज्वालारूप या प्रज्वलित अनेक प्रकार की अग्नि है
वायु- वायुकाय के जीवों का शरीर अदृश्य है, अतः दृष्टिगोचर नहीं होता है । स्पर्शजन्यं अनुभव है। परन्तु ये भी एकेन्द्रिय जीव हैं । सर्वथा अजीव सृष्टि नहीं कहा है। वायु के जीवों का भी जन्म-मरण आदि सब होता है । क्षेत्रविशेष से भिन्न-भिन्न प्रकार का वायु कहा जा सकता है । समुद्री संभाग का वायु, पर्वती प्रदेश का वायु आंधी-तूफान का वायु, आदि भेद हैं।
वनस्पति काय के जीव-पत्ति शब्द पेड-पौधों के पत्तों को कहते हैं । और उनके समूह को वन कहते हैं। ये वनस्पति के जीव कहलाते हैं । काया अर्थात् शरीर । इनके
शरीर पत्तिरूप, बीजरूप, फलरूप, वृक्षरूप, फूलरूप अनेक प्रकार के हैं । रूप-रंग-आकार-प्रकार आदि से लाखों प्रकार की वनस्पतियाँ संसार में विद्यमान हैं । एक से दूसरे की पत्तियों या आकार-प्रकार-गुणधर्मादि सर्वथा भिन्न है। बीजादि में इनकी जीवनी शक्ती विशेष रूप से रहती है। जगदीशचन्द्र बोस ने मात्र वनस्पति में ही जीव है इतना ही कहा है । जबकि जैन जीव विज्ञान के शास्त्र तो इस विषय में भरे पडे हैं कि... वनस्पति को इन्द्रियों में से पहली एक स्पर्शेन्द्रिय होती है । अतः ये एकेन्द्रिय कहलाते हैं । ये भी
संसार
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