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________________ १) त्रस जीव- त्रस नामकर्म के उदय से जो गति करने आदि का स्वभाव प्राप्त हुआ है ऐसे जीवों को त्रस जीव कहते हैं । ये १) गति त्रस और २) लब्धि त्रस भेद से पुनः २ प्रकार के होते हैं । त्रस अर्थात् त्रास = पीडा दुःख से बचने के लिए जो जा सके, गति कर सके उन्हें त्रस जीव कहते हैं। तेज और वायु के जीवों को तत्त्वार्थकार ने गति त्रस की कक्षा के अन्तर्गत गिना है । और लब्धि त्रस में २, ३, ४ और ५ इन्द्रियवाले जीवों की गिनती होती है । 1 २) स्थावर जीव - स्थिर को स्थावर जीव कहते हैं । जो दुःख पीडा आदि के समय गति न कर सके, बचने के लिए भी भाग न सके उन्हें स्थावर कहते हैं। पृथ्वी, पानी, वनस्पति के जीव स्थावर कक्षा के हैं । यद्यपि तेज, अग्नि और वायु के जीवों की गणना भी स्थावर में ही होती है । अतः पाँच स्थावर के प्रकार गिने गए हैं। सिर्फ वायु की स्वाभाविक गति के कारण, तथा अग्नि की ज्वाला के ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण उन्हें गति की कक्षा के कहे हैं । I जैन जीव विज्ञान में पृथ्वी के पत्थर, हीरा, सोना, चांदि आदि धातुओं, स्फटिक, मणि, रत्न, हरताल, सैंधव, निमक, संगमरमर आदि सभी जाती के पाषाण आदि को पृथ्वीकायिक कहा है । ये केन्द्रिय की कक्षा के हैं । ये जीव अन्य गति-जाति में से आकर पत्थर रूप से उत्पन्न होते हैं । अपने शरीर की वृद्धि करते हैं । तब सब मिलकर विशाल शिला, और अनेक शिलाओं का सम्मिलित पर्वत का रूप धारण करते हैं । ये पर्थिव जाति के जीव हैं | विज्ञान के क्षेत्र में किसी पत्थर का निर्माण प्रयोगशाला में किया नहीं गया है। इतना ही नहीं, पानी, अग्नि और वायु को भी जैन जीव विज्ञान ने स्वतंत्र जीव कहा है । ये सिर्फ जड भौतिक ही नहीं है, पंचभूत मात्र भौतिक या जड ही नहीं है । ये सभी एक इन्द्रियवाले हैं । सजीव सृष्टि है । इन में भी चेतन जीवात्मा है । ये भी जन्म-मरण धारण करते हैं । इनके भी कर्मों का उदय बंध आदि सब कुछ है । जगदीशचंन्द्र बोस ने तो सिर्फ वनस्पति में ही जीव का अस्तित्व बताया है परन्तु जैन जीव विज्ञान में सर्वज्ञ भगवंतों ने पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति इन सब में भी जीव बताया है। यह जीव सृष्टि है । अजीव सृष्टि नहीं है । अतः मात्र भौतिक नहीं है । देह धारी जीव है । मात्र जीवों का अस्तित्व ही बताया है, इतना ही नहीं अपितु इसकी गहराई में जाकर उनके प्राण, योनि, आयु कर्म सब कुछ बताया है । कई सेंकडों विषय की बातें की हैं इनसे शास्त्रों के शास्त्र भरे पडे हैं । 1 पानी— अप्काय = पानी स्वयं जीव है । दिखाई देती हुई पानी की एक बूँद उसकी काया - शरीर है । अतः पानी को अप्काय कहा गया है। पानी के आधार पर रहनेवाले, १६८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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