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और स्थावर के २ प्रकार में समस्त ब्रह्माण्ड के सभी जीवों का समावेश हो जाता है । स्त्री वेद, पुरुष वेद, और नपुंसक वेद की दृष्टि से विचार करने पर ३ वेदों में समस्त जीवों का समावेश हो जाता है । क्योंकि सभी जीव इन ३ वेदों वाले ही हैं । देव, मनुष्य, नरक और तिर्यंच इन चार गति की दृष्टि से संसार के समस्त जीवों का विभाजन इन चार गति में किया गया है । इन्द्रियों की दृष्टि से जगत के सभी जीवों का समावेश १, २, ३, ४,५ इन्द्रियों में किया गया है । और काया-शरीर की भिन्नता की दृष्टि से जीवों को १) पृथ्वीकायिक, २) अपकायिक, ३) तैजसकायिक, ४) वायुकायिक, ५) वनस्पतिकायिक और ६) त्रसकायिक इन ६ कायों में विभाजित करके सोचा गया है।
मुक्त और संसारी जीव__. “संसारिणो मुक्तष्च" २-१० तत्त्वार्थ सूत्रकार ने सर्वप्रथम जीवों को २ विभाग में विभक्त किया है । १) मुक्त जीव और दूसरे २) संसारी जीव । चित्र में दर्शाए अनुसार १४ राजलोक के अग्रभाग-लोकाग्र पर या लोकान्त भाग पर सिद्धशिला पर ही रहनेवाले सभी सिद्धात्मा हैं । ये सभी कर्मरहित-अकर्मी अशरीरी हैं । अतः ये सिद्ध–बुद्ध-मुक्त कहलाते हैं। ये संसार से परे हैं। अतः इनको इन्द्रियाँ-शरीरगति–जाति-जन्म-मरणादि कुछ भी नहीं रहता हैं । संसारी जीव-ठीक इससे विपरीत जी सिद्ध जीव संसारी जीवों का स्वरूप है । संसारी
जीव कर्मग्रस्त हैं । कर्मजन्य स्थिति में सुख-दुःखादि भुगतते हुए . . . जन्म-मरणादि धारण करते हुए ... काल व्यतीत करते हैं। अतः इनके
लिए शरीर-इन्द्रियाँ आदि सब कुछ संसारी जीव है। अतः ये संसारी कहलाते हैं।
संसारी १ त्रस .२ स्थावर संसारिणस्त्रसस्थावराः २/१२
संसारी जीव त्रस और स्थावर रूप से २ प्रकार के हैं।
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संसार
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