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भी नहीं आता है अतः अनन्त है । अतः शाश्वत है । यह अनन्त जीवों की अपेक्षा से है। जब जीवों की संख्या ही अनन्त है जिसका कभी अन्त होनेवाला ही नहीं है । ऐसे संसार की उत्पत्ति कहाँ से गिने ? शुरुआत कहाँ से गिने? गिनती भी संभव नहीं है । अतः जब से जीव हैं तब से संसार है ही और जब से संसार है तब से जीव हैं ही । दोनों एक दूसरे के पूरक कार्यकारण हैं । संसार के कारण जीव और जीवों के कारण संसार यह क्रम चलता ही रहता है । जब जीवों की संख्या अनन्त है उसकी समाप्ति कभी भी होनी संभव ही नहीं है तो फिर संसार का अन्त आने का तो प्रश्न खडा ही नहीं होता है । इसीलिए संसार की अनन्तता सिद्ध होती है।
आखिर संसार किसका? जीव का या अजीवका? सोचिए, अजीव का क्या संसार हो सकता है? वह तो जड है-निर्जीव है-चेतनारहित है । इसलिए अजीव-जड पुद्गल परमाणुओं का जिनको न तो सुःख-दुःख की संवेदना है और न ही...कर्म बांधना छोडना है, न ही जन्म-मरण लेना है, और न ही एक गति से दूसरी गति में आना-जाना है । किसी भी प्रकार की संसार की कोई व्याख्या जब अजीव-जड में घट ही नहीं सकती है तो फिर अजीव-जड का संसार कैसे कहा जाय? संभव ही नहीं है । कहना ही गलत है । संसार तो सिर्फ जीव का ही होता है। क्योंकि सारी व्याख्याएँ जीव के साथ बैठती हैं । घटती हे । इसलिए जीवकृत संसार है न कि.... संसार कृत जीव । जीव ने संसार बनाया है परन्तु संसार ने जीव को बनाया है ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसलिए जीव का संसार कहा जाता है।
संसार किसी वस्तु विशेष का नाम नहीं है । यह कोई नाम वाची संज्ञा ही नहीं है। किसी भी मकान, टेबल, ईंट, चूने या अन्य किसी भी वस्तु विशेष को संसार कह ही नहीं सकते हैं। इसी तरह जड पद्गल पदार्थों के मिलने को भी संसार नहीं कहा जा सकता। लेकिन जीवों का ही संसार है, इसमें भी अकेले जीव के कारण संसार है यह भी बात नहीं है। क्योंकि संसारी अवस्था में जीव-अजीव जड-पुद्गल पदार्थों के साथ घुला–मिला है । जड-पुद्गल के घेरे में फँसकर ही जी रहा है । जीव ने बनाया हुआ यह शरीर भी जड-पुद्गल परमाणुओं का ही है । मन, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास, भाषा, तथा कर्म, एवं अनेक प्रकार की लाखों वस्तुएँ जड-पुद्गल–परमाणुओं को ग्रहण करके जीव ने अपने लिए बनाई है । और उन्हीं के बीच जीव जी रहा है। जैसे एक मकडी स्वयं जाल बांधती है और स्वयं ही उसी में फँसती भी है। पुद्गल परमाणुओं की सहायता के बिना तो जीव
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आध्यात्मिक विकास यात्रा