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संसार में रह ही नहीं सकता है । संसार में रहना और पुद्गल-परमाणुओं की, अजीव पदार्थों की सर्वथा सहायता के बिना या उनको ग्रहण किये बिना तो रहना ही संभव नहीं है । अतः अजीव-जड-पुद्गल की सहायता उपयोगिता संसार में जीव के लिए अनिवार्य है । उसी के साथ रह सकता है जीव । हाँ, जिस दिन मुक्त हो जाएगा.... संसार से छूट जाएगा, उस दिन किसी भी पुद्गल परमाणुओं की या किसी भी पदार्थ की आवश्यकता नहीं रहेगी। वह जीव सर्वथा मुक्त गिना जाएगा। पुद्गल संग से भी सर्वथा मुक्त ही गिना जाएगा। लेकिन जब तक जीव मुक्त नहीं हो पाता है तब तक तो संसार के घेरे मे फँसा हुआ है। कर्म जन्य संसार है । और कर्मकृत संसार है । जीवोपार्जित कर्मजन्य संसार है । अतः जीव कर्म के कारण भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में संसार में है। ..
मिथ्यात्वादि निमित्तोपार्जितकर्मवशादात्मनो भवान्तरप्राप्तिरूपत्वं संसारित्वस्य लक्षणम्।
कर्म के विभाग में हम जो कर्म की मिथ्यात्वादि प्रकृतियों का विचार कर चुके हैं उन मिथ्यात्वादि कर्मों के निमित्त जीवों का एक भव से आगे के दूसरे भवों में जाना यह संसारी जीव का लक्षण है । संसार में रहनेवाले जीव को संसारी कहते हैं । जो कर्म संसक्त होता है वह संसारी होता है। और जो संसारी होता है वह अवश्य कर्म संसक्त होता है। जीव की संसारी अवस्था ही कर्मजन्य है। कर्मोपार्जित है। कर्मरहित तो मुक्ती है। मुक्तावस्था सर्वथा कर्म रहित है।
जैसे बच्चा एक ही है उसे भिन्न भिन्न प्रकार की वेशभूषा पहनाने पर भिन्न-भिन्न प्रकार का दिखाई देता है । कभी पोलीस, कभी डॉक्टर, कभी वकील, कभी स्त्री, कभी पुरुष, कभी नेता, कभी अभिनेता इत्यादि रूपों में वह दिखाई देगा। क्योंकि वैसी भिन्न-भिन्न प्रकार की वेशभूषा बदल-बदलकर पहनाई गई है इसलिए । जैसे सोना एक ही मूल धातु है परन्तु भिन्न-भिन्न प्रकार की आकृतियाँ देकर अलग-अलग गहने-आभूषण बनाए जाते हैं । उनमें आकार प्रकार भिन्न हैं परन्तु मूलधातु सुवर्ण तो वही है । ठीक वैसे ही.. जीवात्मा तो वही है परन्तु नाम कर्म के संयोग वश जीव को भिन्न भिन्न शरीर धारण करने पडते हैं। अतः शरीर पर्याय में वह जीव भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है-बनता है। कर्मजन्य वैसे देह धारण करने पड़ते हैं । इस देह धारण करने की प्रक्रिया को वेशभूषा की उपमा दी गई है । आभूषणों की उपमा दी गई है । इस तरह संसार में संसारी जीवों के जो भेद पडते हैं वह निम्न तालिका से आसानी से समझ सकते हैं
संसार
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