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________________ और वहाँ मोक्ष में कर्मबंधादि का अभाव है । फिर अधःपतन संभव ही नहीं है । ऊपर से नीचे नहीं स्वीकारा गया है । अतः संसार से एक नहीं अनेक नहीं अनन्तात्मा मोक्ष में जाती हैं। गई हैं, जो भी सर्वकर्मक्षय करें वह मोक्ष में जाती है। सिद्ध - बुद्ध-मुक्त बनती है । अतः जैनदर्शन अनन्तात्मवादी है । अतः अनन्तसिद्धात्मवादी है । परमात्मा बनने की ठेकेदारी एक ही ईश्वर को नहीं दी गई है। जो भी सर्वकर्मक्षय करके परमात्मा स्वरूप शुद्ध स्वरूप प्राप्त करे वह परमात्मा बनती है । इसलिए परम पद को कोई भी पामर प्राप्त कर सकता है । पामर ही परम बनता है, बन सकता है । सिर्फ उसे कर्मक्षय करते हुए उन गुणस्थानों से होते हुए गुजरना पडेगा । राग- - द्वेषादि का क्षय हो जाएगा और सर्वज्ञता – वीतरागता प्रगट हो जाएगी, फिर सवाल ही कहाँ रहा ? पूर्ण परमात्मा बन गये 1 ऐसे परमात्मा बनने के लिए पूर्व में बने हुए परमात्मा का आलम्बन लेना, उनकी स्तुति - स्तवना करना, उनकी प्रतिमा समक्ष दर्शन - वंदन - पूजन - पूजा करना उसी पद को पाने का आलम्बन है, भक्ति मार्ग है। अतः पूजा भक्ति यह उपासना मार्ग है । जाप – नामस्मरण-ध्यान - साधना आदि कई प्रकार उपास्य की उपासना के हैं, एक भी गलत नहीं है । दर्शन-पूजन आदि को गलत कहना भी गलती है, भूल है । यही मार्ग है भक्ति का—जिससे भक्त भगवान बन सकता है । स्वयं परमात्मा ने पामरात्मा को यह मार्ग दिखाते हुए परमात्मा बनने का तरीका बताया है । इस दृष्टि से सिर्फ सृष्टिकर्ता के स्वरूप में ईश्वर को न मानते हुए जैन शुद्ध पूर्ण परमेश्वर परमात्मा अरिहंत - वीतराग तीर्थंकर - सर्वज्ञ को भगवान ईश्वर मानते हैं । ईश्वर ही नहीं परमेश्वर माननेवाले जैनों को परमेश्वरवादी, परमात्मवादी, सर्वज्ञात्मवादी, वीतरागवादी, सिद्धात्मवादी, आदि शब्दों से नवाजना उचित होगा। सिर्फ निरीश्वरवादी कहकर नास्तिक कहने की धृष्टता करने के बजाय पूर्ण परमात्मवादी, पूर्ण परमेश्वरवादी कहना पडेगा । इतना ही नहीं सिर्फ आस्तिक ही नहीं परमास्तिक जैनों को कहना पडेगा । परमात्म भक्ति के उदाहरण के रूप में आज भी हजारों लाखों मंदिर जो लाखों वर्षों से विद्यमान हैं, इतने बडे तीर्थ और जिन मंदिरादि ही जैनों की परमास्तिकता - परमभक्ति की गौरवगाथा सदियों से गा रहे हैं । सदियों से पूजा हो रही है । इस तरह जैनदर्शनं ईश्वरकर्तृत्ववादी दर्शन नहीं है । अवतारवादी भी नहीं है । एकेश्वरवादी भी नहीं है, नित्य ईश्वरवादी भी नहीं है तो ऐसी मान्यतावाले हिन्दु धर्म की शाखा भी कैसे हो सकता है ? नीम के वृक्ष की एक शाखा मीठी कैसे हो सकती है । आम्र वृक्ष की शाखा को नीम के वृक्ष की शाखा कैसे कह सकते हैं ? जैन दर्शन की मौलिक आध्यात्मिक विकास यात्रा १५८
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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