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अतः ईश्वर को पूर्ण शुद्ध स्वरूप में स्वीकारना अनिवार्य है। उसे सृष्टिकर्ता संहारकर्ता न मानकर सर्वकर्ममुक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, राग-द्वेषरहित - वीतराग, सिद्ध - बुद्ध - मुक्त मानना जरूरी है। मोक्षमार्ग का उपदेष्टा मानना चाहिए। आत्मा का ही पूर्ण शुद्ध स्वरूप है । विद्यानंदी ने यही कहा है—
मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां तीर्थेशं स्मृतिमानये ॥
जो मोक्षमार्ग दिखानेवाले हैं, गन्तव्य मोक्ष तक ले जाने में सहायक आलम्बन हैं, कर्मों के पर्वतों को जिसने तोड़ दिये हैं, तथा जो समस्त विश्व के सभी तत्त्वों पदार्थों के ज्ञाता सर्वज्ञ है ऐसे तीर्थेश - तीर्थंकर को मैं स्मृतिपटल में स्मरण करता हूँ । बात यही सही
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है । जो अरिहंत हो वही भगवान कहलाने योग्य है । परन्तु जो भगवान हो वह अरिहंत नहीं भी कहला सकते हैं। चूंकि अरिहंत अरि काम क्रोधादि शत्रु (काम-क्रोध- मान - माया - लोभ-राग-द्वेषादि), हंत नाश अर्थात् जिन्होंने राग-द्वेषादि आत्मशत्रुओं का नाश - (क्षय) किया है ऐसे अरिहंत ही भगवान - ईश्वर कहलाने योग्य हैं ।
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आत्मा
ईश्वर ही नहीं परमेश्वर वे ही कहे जाएंगे। परम + ईश्वर = परमेश्वर । परम + परमात्मा । अतः जैन निरीश्वरवादी नहीं परमेश्वरवादी हैं । सृष्टिकर्तृक ईश्वर को जैन नहीं स्वीकारते हैं, इस अपेक्षा से जैनों को निरीश्वरवादी कहना उचित है । परन्तु साथ ही साथ परम शुद्ध आत्मा को परमेश्वर कहते हुए जैनों को परमेश्वरवादी भी कहना होगा । परमोच्च - सर्वोच्च - परम शुद्ध - पूर्ण वीतराग परमात्मा को परमेश्वर माननेवाले जैनों ने प्रभु के स्वरूप में हास्यास्पदता या विकृति खड़ी नहीं की । अतः भक्ति उपासना में सदा ही परमात्मभक्ति करनेवाले जैनों को नास्तिक कहना भी मूर्खता होगी ।
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जैन दर्शन अवतारवाद भी नहीं स्वीकारता । मुक्तात्मा मोक्ष से पुनः लौटकर संसार में नहीं आती । अपूर्ण पूर्ण बनता है । रागी - वीतरागी बनता है । अशुद्ध शुद्ध बनता है । उसी तरह संसारी सिद्ध बनता है । बुद्ध-मुक्त बनता है । इसका उल्टा नहीं होता । अतः सर्व कर्मबंधनों से मुक्त सिद्धात्मा पुनः संसार में नहीं आते, पुनः जन्म नहीं लेते । उन्हें न तो लीला करनी है, न ही अनुग्रह - निग्रह करना है, न ही सृष्टि रचनी है, न ही प्रलय करना है, न ही कर्मफल देना है। इन सब विडंबनाओं से ऊपर उठे हुए वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त — कृतकृत्य-धन्य हो चुके हैं । अतः न तो वहाँ कर्मबंध है, और कर्मबंध न होने से पुनरागमन नहीं है। चूंकि नीचे पतन या संसार में पुनरागमन तो कर्मजन्य है,
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संसार की विचित्रता के कारण की शोध
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