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________________ है। अच्छा इस तरह ईश्वर को निमित्त कारण मानें तो फिर ईश्वर जीवों की शुभाशुभ कार्य प्रवृत्ति में निमित्त नहीं बनेगा। चूंकि अदृष्ट ही जीवों के लिए कारण है । अपने पूर्वकृत कर्म संस्कार रूप अदृष्ट के लिए जीव स्वयं उत्तरदायी है, ईश्वर नहीं । इस तरह जीव स्वयं अपने शुभाशुभ का कर्ता है, तो उसे ही भोक्ता भी मानना ही पडेगा । कालानुसार वह जीव उस अदृष्ट (कर्म) के फल को भोगेगा। अतः ईश्वर का जीवों के शुभाशुभ कर्म एवं फल के विषय में हस्तक्षेप फिर नहीं रहेगा । अतः ईश्वर न तो सृष्टिकर्ता और न ही कर्मफलदाता सिद्ध होता है। शुद्ध परमेश्वर-स्वरूप इतनी सुदीर्घ एवं सुविस्तृत तर्कयुक्तिपुरस्सर चर्चा से यह निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर कोई ऐसी सत्ता नहीं है जो सृष्टि की रचना करता है, प्रलय-संहारादि करता है- यह किसी भी रूप में सिद्ध हो नहीं सकता है। उसी तरह ऐसे ईश्वर के विषय में दिये गए विशेषण जगत का कर्ता, एक ही है, वही नित्य है, सर्वव्यापी तथा स्वतन्त्र है। ये कोई विशेषण भी सिद्ध नहीं होते । परस्पर विरोधाभास इन विशेषणों से खडा होता है । जैसे तराजु में चूहों को तौलना कठिन है वैसे ही इन विशेषणों का तर्क युक्ति की तुला में बैठाना कठिन है, असंभवसा है । एक सिद्ध करने जाओ तो दूसरे टूटते हैं। दूसरे सिद्ध करने जाओ तो तीसरा असिद्ध होता है । इस तरह यह चर्चा तो काफी लम्बी-चौडी है । परन्तु मूल में ही जो सृष्टिकर्तृत्व माना है वही सिद्ध नहीं हो सकता है तो दूसरी बातें उसी के आधार पर सिद्ध नहीं होती है। अतः निरीश्वरवादी जैनों का कहना है कि बलात् ईश्वर पर कर्ता-नित्य-एकादि विशेषण बैठाने से दोष आता है और ये विशेषण शोभास्पद नहीं ठहरते अपितु ईश्वर की विडंबना करते हैं। योग्य आभूषणों को स्वरूपवान स्त्री भी यदि सुयोग्य स्थानपर नहीं पहनती है तो वह भी हास्यास्पद बनती है । उसी तरह ईश्वर में जो सृष्टिकर्तृत्व-फलदातृत्व आदि सिद्ध होते ही नहीं है उनको जबरदस्ती ईश्वर पर बैठाने से ईश्वर का स्वरूप हास्यास्पद-विकृत सिद्ध होता है । फिर ऐसे विकृत स्वरूपवाले, ईश्वर की हम उपासना, भक्ति-नामस्मरण-ध्यानादि कैसे करें? पत्नी को दुराचारिणी दुश्चरित्र देखकर फिर उसके प्रति प्रेम कैसे उत्पन्न होगा? इसी तरह बिडंबनायुक्त हास्यास्पद विकृत स्वरूप ईश्वर का देखते हुए उसके प्रति आदर, पूज्यभाव, भक्तिभाव कैसे उत्पन्न होंगे? संभव ही नहीं है। १५६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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