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________________ क्या ईश्वर जिस स्वभाव से सृष्टि की रचना करता है उसी स्वभाव से संहार करता है या भित्र स्वभाव से? यदि ईश्वर को सदा एक ही स्वभाववाला मानोगे तो दो भिन्न-भिन्न कार्यों की संभावना ही नहीं रहेगी। सृष्टिरचना और प्रलय दोनों ही ठीक एक दूसरे के सर्वथा विपरीत कार्य हैं । अतः एक ही स्वभाव से दोनों विरोधी कार्य हो नहीं सकते तथा ईश्वर को एकान्त नित्य मानने पर सृष्टि की तरह संहार बन नहीं पाएगा। यदि ईश्वर सृष्टिरचना तथा संहारादि अनेक कार्यों को करेगा तो वह अनित्य हो जाएगा। अनेक कार्य तो आप स्वीकारते हैं। सिर्फ एक सृष्टिरचना ही नहीं अपितु पालन और संहार भी आप ईश्वर के ही कार्य के रूप में स्वीकारते हैं तो फिर अनेक कार्य हुए। और अनेक कार्यों के कारण ईश्वर में अनित्यता आ जाएगी। अनेक कार्य और एकान्त नित्य दोनों परस्पर विरोधी हैं यदि ईश्वर के स्वभाव में भेद नहीं है तो सभी कार्य एक साथ ही हो जायेंगे तथा एक स्वभाव से अनेक कार्य संभव नहीं हैं । चूँकि कार्यानुरूप स्वभाव एवं स्वभावानुरूप कार्य होता है । स्वभाव भेद अनित्यता का लक्षण है । आप ही कहते हैं कि ईश्वर सृष्टिरचना में रजोगुण, संहार में तमोगुण, एवं स्थिति में सत्त्वगुण रूप से प्रवृत्ति करता है । इस तरह अनेक अवस्थाओं एवं स्वभावों के भेद एवं परिवर्तन से ईश्वर को एकान्त नित्य कैसे मान सकते ___मान लो कि ईश्वर नित्य है तो उसमें रही हुई इच्छा भी नित्य होगी । इच्छा नित्य है तो सृष्टि रचना का कार्य नित्य चलते ही रहना चाहिए । इच्छा ईश्वर को सदा काल प्रवृत्त करती ही · रहेगी। दूसरी तरफ आप ईश्वर में बुद्धि-इच्छा–प्रयत्नसंख्या-परिमाण-पृथक्त्व–संयोग और विभाग नामक आठ गुणों को स्वीकारते हो। ईश्वर की नित्यता के साथ इच्छा की भी सदा नित्यता ईश्वर में स्वीकारें तो नाना कार्यों के आधार पर इच्छाएं भिन्न-भिन्न विषयक माननी पडेगी । चूंकि कार्य कई प्रकार के हैं । इस तरह ईश्वर की इच्छाओं के विषय होने से ईश्वर को भी अनित्य मानना पडेगा। क्या ईश्वर को कर्ता या निमित्त कारण मानें? . यदि ईश्वर ने पृथ्वी-पानी-अग्नि-वायु के परमाणुओं से तथा अदृष्ट (पूर्व कर्म संस्कार) को ध्यान में रखकर यदि जीवों के कल्याण हेतु इस जगत की सृष्टि की है और वह भी नित्य विद्यमान दिशा, काल और आकाश में की है तो फिर ईश्वर को अधिक से अधिक निमित्त कारण (Eficient Cause) मान सकते हैं परन्तु सृष्टिकर्ता नहीं कहा जा सकता; क्योंकि न्यायवैशेषिक मतानुसार ईश्वर इस जगत को शून्य से उत्पन्न नहीं करता संसार की विचित्रता के कारण की शोध १५५
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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