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________________ अच्छा यदि आप ऐसा कहो कि सृष्टिरचना करने के बाद दुःखी जीवों को देखकर ईश्वर में करुणा का भाव उत्पन्न हुआ। तो क्या यह इतरेतराश्रय दोष नहीं कहलाएगा? ईश्वर दुःखी जीवों को बनाए और फिर उन पर करुणा जगाए। उस करुणा से अनुग्रह करे । अरे भगवान ! ऐसी समुद्री प्रदक्षिणा से क्या लाभ? इसकी अपेक्षा तो आप सृष्टि निर्माण करने का पक्ष ही न स्वीकारो तो क्या आपत्ति है ? करुणा से जगत् की रचना और जगत् रचना से पुनः करुणा ऐसा यदि दोषयुक्त भी मानोगे तो तो आण्डे-मुर्गी की तरह यह क्रम सदा ही चलता रहेगा। इसका अन्त ही नहीं आएगा। करुणा से जगत्, जगत् से पुनः करुणा, पुनः करुणा से जगत् रचना, पुनः करुणा, पुनः जगत् । इस तरह सदा ही करुणा और सदा ही जगत् की रचना चलती ही रहेगी। अच्छा यह बात यदि आपको आपकी पक्ष पुष्टि की लगे भी सही, परन्तु सदा ही करुणा और सदा ही जगत् रचना यदि चलती ही रहेगी तो ईश्वर संहार प्रलय कब करेगा? या तो आपको दोनों में से एक पक्ष स्वीकारना पडेगा । परन्तु सृष्टि ही नहीं बनी होगी तो संहार किसका करेगा? सृष्टि की रचना ही सिद्ध नहीं हो रही है तो संहार–प्रलय की बात किसकी करें ? दसरी तरफ सष्टि और संहार दोनों एक साथ स्वीकारें तो भी संभव नहीं है। कुम्हार घडे बनाता जाय और फोडता जाय? माँ बच्चे को जन्म देती जाये और फिर मारती जाये। फिर जन्म दे और फिर मार दे तो निरर्थक प्रसव पीड़ा सहन करने का दुःख क्यों सिर पर ले? उसी तरह दोनों स्वभाव साथ रखकर ईश्वर कार्य करे तो सृष्टि निर्माण और संहार दोनों एक साथ संभव भी कैसे हो सकता है ? सृष्टिरचना निरर्थक निष्प्रयोजन सिद्ध होगी। आप यदि यह कहें कि लीला-विलास मात्र के लिए ही ईश्वर ऐसा करता है-यह पक्ष स्वीकारते हैं तो फिर करुणा-अनुग्रह-निग्रहादि या सर्वज्ञत्व या सर्वशक्तिमानादि पक्ष निष्प्रयोजन सिद्ध होंगे। करुणा के रहने पर संहार मानना यह पानी में से आग निकालने के बराबर होगा । करुणा से संहार हो नहीं सकता है । तो क्या आप संहार-प्रलय के लिए दानवी-राक्षसी क्रूरता का अस्तित्व ईश्वर में मानेंगे? यह तो ईश्वर का उपहास करने की चरम सीमा हो जाएगी। क्रूर-दानव-राक्षस भी कहना और ईश्वर भी कहना यह मूर्ख व्यक्ति भी नहीं स्वीकारेगा। ___अच्छा आप सृष्टि रचना और प्रलयकारक संहार दोनों ईश्वर के कार्य मानोगे तो ईश्वर में नित्यत्व सिद्ध नहीं होगा। अनित्यत्व आ जाएगा। अच्छा दोनों क्रिया के कर्ता भिन्न-भिन्न मानोगे तो आपका एकत्व पक्ष चला जाएगा। एक ईश्वर नहीं रहेगा। नाना ईश्वर मानोगे तो अनेकेश्वरवादी कहे जाओगे। यह तो पैर के नीचे की भी जमीन जा रही है। १५४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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