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________________ 1 उसे भी आपने वेदाधीन कर दिया - तो फिर ईश्वर सर्वज्ञ नहीं रहा यह सिद्ध हुआ । और सर्वज्ञता ईश्वर में ही है यह पक्ष भी पकड़कर रखना चाहते हो तो फिर वेदपारतन्त्र्य से ईश्वर को मुक्त करो । हाश ! भगवान की भक्तों के हाथ में कैसी गति हो रही है ? ईश्वर की इतनी विकृत विडंबना और किसी अन्य ने नहीं परन्तु उसी के द्वारा उत्पन्न की सृष्टि के मानवी ने कर दी। तो यह भी तो सर्वज्ञ ईश्वर जानते ही होंगे तो फिर उनको ईश्वर ने उत्पन्न ही क्यों किया ? ईश्वर के द्वेषी भी इस संसार में कई हैं जो ईश्वर को ही गालियाँ देते हैं । ईश्वर का अस्तित्व ही न माननेवाले नास्तिक हैं । उसको ईश्वर ने क्यों बनाया? क्या मैं जिसको बनाऊँ वही मुझे न माने ? मेरे से ही पैदा हुआ मेरा ही बेटा मुझे न माने ? और क्या ईश्वर यह जानते हुए भी अनिष्ट सृष्टि को निर्माण करे जो ईश्वर का ही स्वरूप विकृत करे। ऐसा भी नहीं है कि ईश्वर का सारा स्वरूप अनीश्वरवादियों ने ही निर्माण किया है । नहीं । अनीश्वरवादी या निरीश्वरवादियों ने तो बड़ा उपकार किया है । उन्होंने तो ईश्वर के विकृत स्वरूप को ठीक किया है, सुधारा है। परस्पर विरोधी बातों को हटाकर ईश्वर स्वरूप की विकृतियाँ हटाकर स्वरूप शुद्ध बनाया है । इसीलिए निरीश्वरवादी जैन आदि ने ईश्वर को सृष्टिकर्ता—संहर्ता के रूप में नहीं अपितु परम शुद्ध पूर्ण परमात्म स्वरूप में माना है । तो ईश्वरकर्तृत्ववादियों ने इन निरीश्वरवादियों को नास्तिक कह दिया । अरे भाई ! नास्तिक किसे कहते हैं ? जो आत्मा-परमात्मा - मोक्षादि तत्त्वों को न मानें उन्हें । सही अर्थ में चार्वाक एक ही सबसे बड़ा सही अर्थ में नास्तिक है। जैनादि तो परम आस्तिक हैं । चूंकि ये आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, मोक्षादि सभी तत्त्वों को मानते हैं फिर नास्तिक कहना भी कहनेवाले की अल्पज्ञता को सिद्ध करता है । दूसरी तरफ देखें तो चार्वाक नास्तिक को भी ईश्वर ने ही निर्माण किया है । तो क्यों निर्माण किया ? क्या त्रिकालविद् सर्वज्ञ होते हुए भी ईश्वर यह नहीं जानते थे कि भविष्य में ये क्या करेंगे? मेरा स्वरूप ही नहीं मानेगे । यह समझकर ईश्वर ने निर्माण ही नहीं किये होते तो कितना अच्छा होता ? परन्तु यही सिद्ध करता है कि ईश्वर ने सृष्टि निर्माण की है ऐसा लगता नहीं है । क्योंकि ईश्वर के विपरीत भी सृष्टि निर्माण हो गई है । 1 यहाँ क्या समझा जाय ? ईश्वर अपनी स्व इच्छा से सृष्टि निर्माण करनेवाला और वही क्या अनिष्ट सृष्टि निर्माण करेगा ? नहीं। लेकिन अनिष्ट सृष्टि है तो सही । फिर यह भूल कैसे हो गई? अरेरे... !' भगवान में भूल दिखाना अर्थात् सूर्य में अंधेरा दिखाने जैसी मूर्खता है । जो भगवान होते हैं वे भूल नहीं करते और जो भूल करते हैं वे भगवान नहीं कहलाते । भगवान और भूल दोनों ही परस्पर विरोधी पदार्थ हैं । जैसे पूर्व - पश्चिम संसार की विचित्रता के कारण की शोध १४३
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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