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फिर उस मिट्टी से घड़ा बनाता जाय, फिर तोड़कर उसे मिट्टी बनाए, फिर घड़े बनाता जाय, फिर मिट्टी .... फिर घड़ा ... क्या ऐसा कोई कुम्हार कभी करता है ? संभव भी नहीं । यदि कुम्हार जो नासमझ है वह नहीं करता है, सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ ईश्वर क्या ऐसा कार्य करे यह संभव भी है ? इस तरह वह बार-बार सृष्टि बनाता रहे और बार-बार संहार से समाप्त करता रहे... पुनः बनाना पुनः प्रलय.... यंत्रवत् ईश्वर को उसी कार्य में जोड़ दिया ? यह ईश्वर की कैसी बिडंबना की है ? अरे ...रे...! इसके बजाय यदि सृष्टि बनानी भी है तो एक बार बना के कार्य समाप्ति के बाद ईश्वर निवृत्त हो जाय । बस फिर बनाने, नाश करने आदि की समस्या ही नहीं रहेगी ? लेकिन क्या करें ? ईश्वर को नित्य भी कह दिया, उसे ही एक कहा है । वह एक ही नित्य है । उसकी इच्छा भी नित्य है । वह सदा बनाता ही रहे । उसी का सदा ही संहार प्रलय भी करता ही रहे । ऐसा ईश्वर का स्वरूप नियत कर दिया है । न मालुम ईश्वर का ऐसा स्वरूप किसने खड़ा किया है ? क्या ईश्वर ने ही अपना जैसा स्वरूप है वैसा बताया है कि फिर ईश्वर ऐसा है यह किसी और ने बताया है ?
ईश्वर ने खुद ने तो अपना ऐसा स्वरूप है यह बताया ही नहीं है । चूंकि ईश्वर के ऊपर भी वेद की सत्ता मानी है। ईश्वर तो उत्पन्न तत्त्व है । परन्तु वेद तो अपौरुषेय अनुत्पन्न तत्त्व हैं । वेद ईश्वर के पहले भी विद्यमान थे। तभी तो ईश्वर ने वेद में देखकर सृष्टि की रचना की है । वेद नहीं होते तो ईश्वर सृष्टि की रचना ही कैसे करते ? किंकर्तव्यमूढ़ बनकर बैठे रहते, क्योंकि पूर्व के कल्प में सृष्टि कैसी रची थी यह कैसे पता चलता ? इसलिए सृष्टि निर्माण करने के लिए ईश्वर को वेद में देखना अनिवार्य है । वेद में लिखे अनुसार ही ईश्वर सृष्टि की रचना कर सकता है । यहाँ ईश्वर को भी वेद के अधीन कर दिया। ईश्वर की स्वतंत्रता छीन ली और परवश, परतन्त्र बना दिया । तो फिर ईश्वर की स्वतन्त्रता कहाँ रही ? ईश्वर सर्वोपरि सर्वोच्च कहाँ रहा ? और दूसरी तरफ आश्चर्य देखिए कि ईश्वर को सर्वज्ञ, सर्वविद, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान कहा । तो यह गलत सिद्ध होगा । वेद को ही सर्वज्ञ - सर्वविद् कहते तो ही ठीक रहता । परन्तु वेद चेतन - सक्रिय तत्त्व कहाँ है ? फिर तो वेद सृष्टि की रचना करता ऐसा होता । लेकिन ऐसा न करके भी ईश्वर को वेद का दास अनुचर बना दिया । अरेरे...! सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ कहकर भी ईश्वर की लगाम वेद के हाथ में देकर ईश्वर को अश्व का रूप दे दिया। यह क्या ईश्वर की कम विडंबना है ? एक तरफ वेद को भी नित्य मानते हैं तथा दूसरी तरफ ईश्वर को भी नित्य मानते हैं । जब दोनों नित्य हैं तो फिर ईश्वर को वेद में दोषापत्ति आएगी। जिसको आपने सर्वज्ञ - सर्वविद् कहा
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आध्यात्मिक विकास यात्रा