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________________ पशु होते हुए भी संतान को मार नहीं डालते तो फिर जो ईश्वर है वह अपने द्वारा उत्पन्न की हुई इस सृष्टि का संहार कर दे यह कैसे संभव है ? जबकि ईश्वर को ही जगत् का पिता कहा जाय, त्वमेव माता-पिता त्वमेव कहा जाय वह ईश्वर पुत्रवत् अपनी सृष्टि का संहार करे यह कैसे संभव है? अच्छा मान भी लें कि पशु-पक्षी या माता नरपिशाची, राक्षसी, चुडैल, स्वसंतान भक्षक बन भी जाय लेकिन जो दयालु है, करुणालु है, दया का सागर है, करुणा का भण्डार है ऐसा ईश्वर स्वनिर्मित, अपने द्वारा उत्पन्न की हुई इस सृष्टि जिसमें अनन्त जीव हैं उन सबको मारने का संहारकारी - प्रलयकारी कार्य क्यों करे ? ऐसे कार्य के कारण के रूप में जब कोई हेतु नहीं मिला तो एक मात्र लीला शब्द का प्रयोग कर दिया । लेकिन सिर्फ लीला शब्द मनःसमाधानकारक नहीं है । जबकि सृष्टि निर्माण करने के कार्य के लिए इच्छा एवं दयालु और करुणालु हेतु दिए थे तब उचित लगते भी थे, लेकिन संहार प्रलय कार्य के लिए सिर्फ लीला शब्द देना पर्याप्त नहीं है ? दूसरी तरफ जैसे सूर्य के रहते अन्धेरे का रहना सम्भव नहीं है, चूंकि दोनों परस्पर विरोधी तत्त्व हैं । ठीक उसी तरह दयालुता और करुणालुता रहने पर संहार प्रलय सम्भव नहीं है । जिस दृष्टि से माँ को देखा जाता है उसी दृष्टि से पत्नी - बहन और बेटी को कैसे देखा जाय ? यह कैसे सम्भव है ? उसी तरह जिस दयालुता आदि से ईश्वर सृष्टि निर्माण करता है वही ईश्वर उस दया करुणा आदि के रहते संहार प्रलय कैसे कर सकता है ? या यों कहिए कि ईश्वर में से दया- करुणा के गुण चले जाते हैं, और क्रूरता, निर्दयता आदि दुर्गुण आ जाते हैं । अरे - रे ! ईश्वर का स्वरूप विकृत करने की भी कोई सीमा होती है ? हाश ! जिसे मानना है, पूजना है, अहर्निश जिसका नामस्मरण करना है, उसका इतना विकृत स्वरूप ? आश्चर्य .. । इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है ? अरे भाई ! मैं तो यह कहता हूँ कि जब आगे चलकर सृष्टि का प्रलय करना ही था तो फिर पहले से सृष्टि निर्माण ही क्यों की ? निर्माण ही नहीं करते तो फिर प्रलय - संहार करने का प्रश्न ही नहीं खडा होता ? यह तो समुद्र से पानी नदी में उलेचने के समान निरर्थक कार्य हुआ ? क्या फायदा ? इधर से समुद्र से पानी भर-भर कर नदी में डालना, जो नदी बहती हुई आकर समुद्र में ही मिलती है । तो फिर ऐसा प्रयत्न क्या बुद्धिमान आदमी का कार्य हो सकता है ? उसी तरह सृष्टि की रचना करो और फिर उसका संहार करो। फिर दूसरे युग में पुनः सृष्टि की रचना करो, फिर प्रलय करो। फिर तीसरे युग में पुनः सृष्टि निर्माण करो ... फिर संहार करके समाप्त करो !... अरे... भगवान ! ईश्वर को कैसे कार्य में जोड़ दिया है ? कुम्हार घड़ा बनाता जाय फिर उसे तोड़कर मिट्टी बनाए, संसार की विचित्रता के कारण की शोध १४१
SR No.002482
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year1996
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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